हम्मीर ने अपने जीवन में कुल 17 युद्ध लड़े जिनमें सोलह में वह विजयी रहा। बार-बार के प्रयासों के बाद भी जलालुद्दीन खिलजी का रणथम्भौर पर अधिकार न कर पाना हम्मीर की शूर वीरता व सैनिक योग्यता का स्पष्ट प्रमाण है। वह वीर योद्धा ही नहीं अपितु एक उदार शासक भी था। विद्वानों के प्रति हम्मीर की बड़ी श्रद्धा थी। विजया दित्य उसका सम्मानित दरबारी कवि तथा राघवदेव उसका गुरु था। कोटियज्ञ के सम्पादन के द्वारा उसने अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय दिया। हम्मीर अपने वचन व शरणागत की रक्षा के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है। उसने अपनी शरण में आए हुए अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोहियों को न लौटाने का हठ कर लिया।