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मूल अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय किस प्रकार के लेख जारी करता है? वर्णन कीजिए।

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मूल अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय द्वारा जारी किए गए लेख: मूल अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय पाँच प्रकार के लेख जारी कर सकता है-

(i) बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख – यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे गलत ढंग से गिरफ्तार किया गया है। इसके द्वारा न्यायालय सम्बन्धित अधिकारी को यह आदेश देता है कि बंदी (गिरफ्तार) बनाए गए व्यक्ति को 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष उपस्थित करे तथा उसे बंदी बनाए जाने का कारण बताए। यदि बंदी बनाए जाने का कारण अवैध होता है तो न्यायालय तत्काल इसे मुक्त करने की आज्ञा देता है।

(ii) परमादेश – परमादेश लेख वह आदेश होता है जिसके द्वारा न्यायालय उस पदाधिकारी को अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए आदेश जारी कर सकता है जो पदाधिकारी अपने कर्तव्य का समुचित रूप से पालन नहीं कर रहा है/रहे हैं।

(iii) प्रतिषेध लेख – यह लेख उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा अपने से नीचे स्तर के न्यायालयों के लिए ऐसी स्थिति में जारी किया जाता है जब नीचे के न्यायालय को उस न्याय कार्य को करने से रोकना होता है जो उसके न्याय क्षेत्र से बाहर का हो।

(iv) उत्प्रेषण लेख – इस आज्ञा पत्र का उपयोग किसी भी विवाद को अधीनस्थ न्यायालय से उच्च न्यायालय में ले जाने के लिए किया जाता है। जिससे कि वह अपनी शक्ति से अधिक अधिकारों का प्रयोग न करे और न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत का पालन किया जा सके।

यह लेख उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने से नीचे के न्यायालय या अधिकारी को तब जारी किया जाता है जब उनके किसी आदेश से सम्बन्धित पक्ष को गंभीर क्षति हुई हो। इस आदेश के पश्चात् उस न्यायालय या अधिकारी के समक्ष सम्बन्धित प्रकरण की कार्यवाही बंद हो जाती है और उसके कागजात ऊपर के न्यायालय को आवश्यक कार्यवाही हेतु भेज दिए जाते हैं।

(v) अधिकार पृच्छा – यह आदेश उस स्थिति में जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति गैर कानूनी रूप से किसी सरकारी या अर्द्धसरकारी या निर्वाचित पद को सम्भालने का प्रयत्न करता है। इस आदेश के द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति से यह पूछा जाता है कि वह किस आधार पर इस पद का कार्य कर रहा है। जब तक वह संतोषजनक उत्तर नही देता तब तक वह कार्य नही कर सकता। न्यायालय सम्बद्ध पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

(1) सरकार के लिए आचार संहिता – नीति निर्देशक तत्वों की उपेक्षा होने की स्थिति में न्यायालय में चुनौती नही दी। जा सकती है। यह सत्य है कि इसे न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नही किया सकता है, फिर भी यह शासन के लिए आधारभूत सिद्धांत है। इनके पीछे जनमत की शक्ति होती है जो लोकतंत्र का सबसे बड़ा न्यायालय है। अतः जनता के प्रति उत्तरदायी कोई भी सरकार इनकी अवहेलना का साहस नहीं कर सकती।

(2) शासन के मूल्यांकन का आधार – नीति निर्देशक तत्व जनता द्वारा शासन की सफलता अथवा असफलता को मापने का एक महत्वपूर्ण मानदण्ड हैं। इनके द्वारा सरकार के विभिन्न कार्यों का सफलतापूर्वक मूल्यांकन किया जा सकता है।

(3) लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना – नीति निर्देशक तत्वों द्वारा भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की नींव रखी गई है।

(4) संविधान के क्रियान्वयन में सहायक – नीति निर्देशक तत्व देश के शासन के मूलभूत सिद्धांत हैं। देश के प्रशासन के लिए उत्तरदायी समस्त विभाग इसके द्वारा निर्देशित होते हैं। न्यायपालिका भी शासन का एक महत्वपूर्ण अंग है। अतः इससे आशा की जाती है कि यह नीति निर्देशक तत्वों को उचित महत्व प्रदान करेगी।

(5) सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन में सहयोगी – नीति निर्देशक तत्व सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन में सहयोगी हैं। नीति निर्देशक तत्व अधिक सुरक्षा व आर्थिक न्याय प्रदान करने हेतु राज्य के प्रत्येक स्त्री – पुरूष को जीविका के साधन उपलब्ध कराने, सम्पत्ति का केन्द्रीकरण रोकने, स्त्री व बाल श्रमिकों को शोषण से सुरक्षा प्रदान करने आदि में सहायक सिद्ध हुए हैं। इसके अतिरिक्त लोगों के जीवन स्तर में सुधार हेतु चिकित्सा, शिक्षा व रोजगार उपलब्ध कराने में भी इन तत्वों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

(6) विश्वशांति से संबंधित – नीति निर्देशक तत्व उन उद्देश्यों को भी स्पष्ट करते हैं जिनके पालन से विश्वशांति की स्थापना हो सकेगी।

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