बाजार का कार्य है- वस्तुओं का विक्रय करना। बाजार को अपनी वस्तुओं को बेचने को ग्राहक की जरूरत है। उसे किसी के लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र से कोई मतलब नहीं है। उसे सिर्फ क्रय-शक्ति को देखना है। इस मत से देखा जाये तो लेखक का कथन सत्य है कि बाजार का यह व्यवहार सामाजिक समता की रचना करता है।
लेकिन इसमें भी क्रेता की सम दृष्टि साबित होती है, विक्रेता की नहीं। क्योंकि क्रय-शक्ति से हीन व्यक्ति स्वयं को औरों के समक्ष कमजोर व दुर्बल समझता है। हीनता की भावना उसकी गरीबी का मजाक उड़ाती-सी प्रतीत होती है इसलिए यह बात सिर्फ एक ही पक्ष पर लागू होती है। दूसरे पक्ष को इस अन्तर की वेदना व असमानता सदैव भोगनी पड़ती है।