लेखक आजाद भारत के पचास वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् भी लोगों के विचारों में सकारात्मकता का भाव नहीं पाता है। वह लोगों के स्वार्थी एवं भ्रष्टाचार में लिप्त व्यवहार को देख कर दुःखी है। वह कहता है कि क्या हम भारतीय आज पूर्णतः स्वतंत्र हैं? हम अपनी देश की सभ्यता और संस्कृति को पूरी तरह समझ पाये हैं? देश के राष्ट्र निर्माण में क्यों हम अभी तक पीछे हैं।
भारतीय त्याग में विश्वास न करके भ्रष्टाचार में क्यों लिप्त रहते हैं? सरकार द्वारा चलाई जा रही सरकारी योजनाएँ तथा उनसे प्राप्त होने वाला लाभ गरीबों तक क्यों नहीं पहुंच पाता है? इन तमाम प्रश्नों एवं विचारों से क्षुब्ध लेखक दुःखी है। वर्षों की गुलामी झेलने के बाद भी भारतीयों की समझ विकसित नहीं हो पाई है। वे देश के विकास को भूल कर सिर्फ स्वयं के विकास में ही तत्पर हैं।