सूर्योदय होने पर लोगों के चेहरों पर हाहाकार तथा हृदय-विदारक क्रन्दन के बावजूद कुछ चमक रहती थी। दिन में लोग काँखते-कूखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलते और अपने पड़ोसियों एवं आत्मीयजनों के पास जाकर उन्हें ढाढ़स देते थे। सूर्यास्त होने पर लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते तो यूँ भी नहीं करते थे। मानो उनकी बोलने की शक्ति भी जाती रहती थी। माताएँ पास में दम तोड़ते हुए पुत्र को अन्तिम बार 'बेटा' भी नहीं कह पाती थीं। रात्रि में पूरे गाँव में सन्नाटा एवं भय का वातावरण रहता था।