प्रस्तुत कविता कामायनी महाकाव्य से ली गई है। श्रद्धा के गर्भस्थ शिशु से मनु को ईर्ष्या होती है। वे उसे श्रद्धा को छोड़कर सारस्वत प्रदेश चले जाते हैं। वहाँ उन्हें इड़ा से भेंट होती है। मनु इड़ा के सहयोग से प्रदेश को ज्ञान-विज्ञान के सहारे भौतिक से परिपूर्ण कर देते हैं। मनु इड़ा पर आसक्त होकर उससे बलात्कार करना चाहते हैं। इस पापकर्म के चलते प्रजा क्रुद्ध हो जाती और देव विक्षुब्ध हो उठता है। युद्ध होता है और मनु मूर्च्छित हो जाते हैं। मनु को खोजती हुई श्रद्धा यहाँ पहुँचती है। इसी प्रसंग में श्रद्धा उपर्युक्त गीत गाती है।
श्रद्धा कहती है कि मैं युद्ध में मचे हुए तुमुल (अत्यधिक) कोलाहल में हृदय की बात हूँ। कर्मक्षेत्र की अनेक समस्याएँ जब मन को विकल और अशांत बना देती हैं; जब मन शांति के लिए तरस उठता है और चिंता के मारे नींद नहीं आती तब चेतना की थकने की स्थिति में में मलयाचल से चलनेवाले चंदन की सुगंध से परिपूर्ण पवन का कोमल सुखद स्पर्श बनकर मन को अपूर्व शांति प्रदान करती हूँ।
श्रद्धा कहती है कि यह संसार व्यथा के अंधकार से आच्छन्न उस वन की तरह होता है जिससे निकलने के लिए जल्दी रास्ता नहीं मिलता; यहाँ मन हमेशा विषादग्रस्त रहता है। इस व्यथा के अंधकार से घिरे जीवन में मैं उषा की ज्योति रेखा के समान हूँ।
ग्रीष्म ऋतु में दिन में पड़नेवाली भीषण गर्मी में जब सारा संसार कुम्हार के आवों में परिवर्तित हो गया हो और लोग विश्व रूपी वन की इस दावाग्नि में गर्मी से मरणांतक पीड़ा भोग रहे हों तब मैं वसंत ऋतु की रात्रिकालीन शीतलता लेकर अवतरित होती हूँ और लोगों को अपनी शीतलता से परितृप्त करती हूँ।
श्रद्धा कहती है कि जब चिर निराशा के बादलों की प्रतिच्छाया (परछाई) अश्रु रूपी सर में पड़ रही हो, तब मैं जल में खिले हुए रसपूर्ण (मकरंद, मरंद से पूर्ण) उस कमल के समान हूँ जिस पर भ्रमर गुंजर करते हुए शोभा पाते हैं।