पाठ्यपुस्तक में संकलित पुत्र वियोग शीर्षक कविता सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रतिनिधि काव्य संकलन मुकुल से ली गई है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सरोज स्मृति के बाद यह हिंदी की दूसरी शोकगीत है जो पुत्र के असामयिक निधन के बाद कवयित्री माँ के द्वारा लिखी गई है।
सुभद्रा कुमारी चौहान पुत्र वियोग में तड़पती हुई कहती हैं कि आज सारी दिशाएँ प्रसन्न हैं और विश्व उल्लसित है। इस सार्वत्रिक उल्लास और प्रसन्नता की बेला में में ही उल्लासविहीन हूँ, क्योंकि मेरा खोया हुआ खिलौना अब तक मेरे पास नहीं आया है। मैंने अपने खिलौने को (पुत्र को) शीत लगने के डर से कभी गोद से नहीं उतारा। जब कभी उसने माँ कहकर मुझे पुकारा, तभी में अपना सारा काम-ग्राम छोड़कर उसके पास दौड़ी हुई चली गई। मैं अपने खिलौने को थपकी दे देकर और लोरियाँ सुना-सुनाकर सुलाया करती रहती थी। उसके चेहरे पर थोड़ी भी मलिनता देखती थी कि मेरी सारी नींद हराम हो जाती थी रात-रात भर जगकर मैं उसकी सेवा किया करती थी।
मैं स्वाभिमान (अपनापन) भूलकर पत्थरों को भी देवता मान लेती थी और उन पर नारियल, दूध तथा बताशे चढ़ाकर एवं शीश झुकाकर उनसे अपने पुत्र की रक्षा के लिए प्रार्थना किया करती थी। लेकिन, किसी देवता ने मेरे पुत्र की रक्षा नहीं की। मेरा खिलौना मुझसे छिन ही गया। मैं अपने बीमार पुत्र के पास असहाय और विवश भाव से बैठी रही। मैं कुछ नहीं कर सकी।
मेरे विकल प्राण तड़प रहे हैं। मुझे पल भर के लिए भी शांति नहीं मिलती। मैं यह अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं अपना खोया हुआ धन (बेटा) पा नहीं सकूँगी, फिर भी मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं. होता। मेरा जीवन बड़ा जटिल और नीरस हो गया। मेरा जीवन अपने पुत्र के अभाव में निरर्थक हो गया है। मेरे लिए अब जीने का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
यदि एक बार पल भर के लिए भी मैं उसे पा लेती तो उसे अपने हृदय से लगाकर प्यार से उसका सिर सहलाती हुई उसे समझाती कि मेरे मैया, मेरे बेटे, माँ को अब इस तरह छोड़कर नहीं जाना। कवयित्री कहती है कि बेटा को खोकर अपने मन को सांत्वना देना बड़ा कठिन है। भाई-बहन भूल सकते हैं; पिता भी कर सकते हैं, लेकिन रात-दिन की साथिन माँ अपने बेटे को नहीं भूल सकती। कवयित्री कहती है कि मैं अपने मन को कैसे समझाऊँ! मेरे मन की विकलता मुझसे दूर नहीं हो रही है।
काव्य-सौंदर्य : यह एक शोकगीत है जिसमें पुत्र की मृत्यु के बाद माँ की तड़प का मार्मिक चित्रण हुआ है। यह भावसमृद्ध कविता है जिसमें अलकरण का अभाव है। वात्सल्यमयी माँ अपने पुत्र वियोग की निदासण पीड़ा को भोगने के समय कितनी विवश और असहाय हो जाती है, इसका चित्रण व्यक्तिगत अनुभूति को निर्वैयक्तिक बनाने के स्तर पर किया गया है। इस कविता (शोकगीति) की व्यक्तिगत अनुभूति निर्वैयक्तिक अनुभूति के विस्तार को छू लेती है। इसकी घनीभूत वेदना एक माँ में करोड़ों माँ को समेट लेती है। यही इस कविता की सफलता है।