वाटसन और क्रिक (Watson and Crick) ने भी DNA की द्विकुंडलिनी संरचना का वर्णन करते समय अर्घसंरक्षी प्रतिकरण का वर्णन किया। इनके अनुसार द्विगुणन के समय दोनों स्टैंड एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं एवं दोनों पुराना स्ट्रैंड टेम्प्लेट का कार्य कर दो संकर DNA के अणु बनाते है जिसमें एक स्टैंड पुराना तथा एक स्ट्रैंड नया रहता है। मेसेल्सन तथा स्टाल की परिकल्पना के अनुसार द्विगुणन के समय DNA के दोनों स्ट्रैंड एक-दूसरे से पूर्णरूपेण अलग नहीं होते हैं। एंजाइम की उपस्थिति में दोनों स्टैंड्स एक सिरे या अंतिम छोर से विकुंडलित हो जाते है फिर अपनी ओर नए न्यूक्लियोटाइड्स को आकर्षित कर जुड़ते हैं एवं इसके बाद कुंडलित हो जाते है। यह एक सतत क्रिया है जो आवश्यकतानुसार चलती है।