खनन: पृथ्वी से वाणिज्यिक दृष्टि से बहुमूल्य खनिजों की प्राप्ति से जुड़ी आर्थिक क्रिया को खनन कहा जाता है।
खनन का विकास - खनन कार्य मानव के प्राचीनतम व्यवसायों में से एक है। खनिजों का मानव सभ्यता के विकास में इतना अधिक महत्त्व है कि इतिहास के कई युगों का नामकरण खनिजों के अनुसार हुआ है। जैसे - ताम्रयुग, कांस्ययुग एवं लौहयुग आदि। खनन का वास्तविक विकास औद्योगिक क्रांति के पश्चात् ही सम्भव हुआ है। आज खनिजों के बिना उद्योगों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्राचीनकाल से आज तक खनन का निरन्तर महत्त्व बढ़ता जा रहा है।
खनन कार्य को प्रभावित करने वाले कारक-खनन कार्य को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं।
1. भौतिक कारक: खनन को प्रभावित करने वाले भौतिक कारकों में खनिज निक्षेपों के आकार, प्रकार एवं उपलब्धता की अवस्था आदि को सम्मिलित करते हैं।
2. आर्थिक कारक: इन कारकों में खनिज की माँग, विद्यमान तकनीकी ज्ञान एवं उसका उपयोग, अवसंरचना के विकास के लिए उपलब्ध पूँजी तथा यातायात व श्रम पर होने वाला व्यय सम्मिलित किया जाता है।
खनन की विधियाँ सामान्यतः खनन के लिए दो विधियाँ अपनायी जाती हैं जो खनिज की उपलब्धता अवस्था एवं अयस्क की प्रकृति पर आधारित हैं।
1. धरातलीय खनन विधि: खनन की इस विधि को विवृत खनन के नाम से भी जाना जाता है। इस विधि को उन खनिजों के खनन के लिए प्रयोग किया जाता है जो धरातल के निकट ही कम गहराई पर पाए जाते हैं। यह सबसे सस्ती विधि है क्योंकि इस विधि में सुरक्षात्मक उपायों एवं उपकरणों पर अतिरिक्त खर्च अपेक्षाकृत कम होता है एवं उत्पादन शीघ्र व अधिक होता है।
2. भूमिगत खनन विधि: खनन की इस विधि को कूपकी खनन के नाम से भी जाना जाता है। यह विधि उन खनिजों के खनन के लिए प्रयोग में ली जाती है जो धरातल में गहराई पर पाए जाते हैं। इस विधि में लम्बवत् कूपक गहराई पर स्थित होते हैं, जहाँ से भूमिगत नालियाँ खनिजों तक पहुँचने के लिए फैली होती हैं।
इन मार्गों से होकर खनिजों का निष्कर्षण एवं परिवहन धरातल तक किया जाता है। खनन में कार्य करने वाले श्रमिकों एवं निकाले जाने वाले खनिजों के सुरक्षित और प्रभावी आवागमन हेतु इसमें विभिन्न प्रकार की लिफ्ट, बेधक (बरमा), माल ढोने की गाड़ियों व वायु संचार प्रणाली की आवश्यकता होती है। खनन की यह विधि जोखिम भरी है, क्योंकि जहरीली गैसें, आग एवं बाढ़ के कारण कई बार दुर्घटनाएँ होने का भय बना रहता है।