भारतीय कृषि की निम्नलिखित आठ समस्याएँ हैं:
(1) अनियमित मानसून पर निर्भरता:
भारत में कुल कृषिगत क्षेत्र का लगभग दो - तिहाई भाग फसलों के उत्पादन के लिए प्रत्यक्ष रूप से मानसूनी वर्षा पर निर्भर रहता है। भारत में दक्षिणी - पश्चिमी मानसूनी हवाओं से होने वाली वर्षा अनियमित होने के साथ - साथ अनिश्चित होती है। जहाँ अनियमित मानसून से एक ओर राजस्थान तथा अन्य क्षेत्रों में होने वाली न्यून वर्षा अत्यधिक अविश्वसनीय है वहीं दूसरी ओर भारत के अधिक वर्षा प्राप्त करने वाले क्षेत्रों में प्राप्त होने वाली वर्षा में भी काफी उतार - चढ़ाव देखा जाता है, जिसके कारण ऐसे क्षेत्र कभी बाढ़ग्रस्त तो कभी सूखाग्रस्त हो जाते हैं। सूखा और बाढ़ दोनों के प्रकोप से कृषि फसलों को गम्भीर हानि का सामना करना पड़ता है।
(2) निम्न उत्पादकता:
संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस तथा जापान जैसे विकसित राष्ट्रों की तुलना में भारत में उत्पादित की जाने वाली अधिकांश कृषि फसलों की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बहुत कम है। इसका प्रमुख कारण भारत में श्रम उत्पादकता का कम रहना तथा देश के शुष्क तथा अर्द्ध - शुष्क क्षेत्रों में वर्षा पर निर्भर रहने वाली कृषि का प्रचलन मिलना है।
(3) वित्तीय संसाधनों की बाध्यताएँ तथा ऋणग्रस्तता:
भारत में सीमांत तथा छोटे कृषक पूँजी की कमी के कारण कृषि कार्यों में पर्याप्त निवेश कर पाने में असमर्थ रहते हैं, जिसके कारण विविध वित्तीय संस्थाओं तथा महाजनों से ऋण तो ले लेते हैं लेकिन कम आय होने के कारण वे ऋणग्रस्त रहते हैं।
(4) भूमि सुधारों में कमी:
यद्यपि आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा भूमि सुधारों को प्राथमिकता प्रदान की गई लेकिन राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण सरकार द्वारा भूमि सुधार पूर्णतया लागू नहीं हो पाये। यही कारण है कि देश में कृषि योग्य भूमि का वितरण आज भी असमान है जिससे कृषि विकास को पर्याप्त बल नहीं मिल सका।
(5) छोटे खेत तथा विखण्डित जोतें:
भारत के 60 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम कृषि भूमि है तथा लगभग 40 प्रतिशत किसानों के खेतों का आकार 0.5 हेक्टेयर से भी कम है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण पीढ़ी - दर - पीढ़ी खेतों का विभाजन होता जाता है तथा कृषि जोतों का आकार भी घटता जाता है। विखण्डित व छोटे आकार के भू-जोत आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं होते।
(6) वाणिज्यीकरण का प्रभाव:
भारत के अधिकांश कृषकों के पास कम कृषि भूमि है, जिसमें कृषक अपने परिवार के भरण - पोषण के लिए खाद्यान्नों का उत्पादन प्राथमिकता पर करते हैं। यद्यपि देश के कुछ सिंचित भागों में कृषि
का आधुनिकीकरण तथा वाणिज्यीकरण भी हो रहा है।
(7) व्यापक अल्प रोजगारी:
भारत के असिंचित क्षेत्रों में वृहद् स्तर पर अल्प रोजगारी की समस्या मिलती है। इन क्षेत्रों में मौसमीय बेरोजगारी वर्ष में 4 से 8 महीनों तक रहती है। भारत के अधिकांश भागों में सम्पन्न होने वाले कृषि कार्यों में चूँकि गहन श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी कारण कृषि में कार्यरत कृषकों को वर्ष-पर्यन्त कार्य करने के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं।
(8) कृषि योग्य भूमि का निम्नीकरण:
सिंचाई तथा कृषि विकास की दोषपूर्ण नीतियों के कारण उत्पन्न एक गम्भीर समस्या है- भूमि संसाधनों का निम्नीकरण। इस समस्या के कारण मृदा उर्वरकता में कमी आ जाती है। भारत के सिंचित क्षेत्रों में कृषि भूमि का एक बड़ा भाग जलाक्रांतता, लवणता तथा मृदा क्षारकता के कारण बंजर - भूमि के रूप में बदल चुका है। कीटनाशक रसायनों के बढ़ते प्रयोग से मृदा परिच्छेदिकाओं में जहरीले तत्वों का जमाव हो गया है।
बहुफसलीकरण में बढ़ोत्तरी होने से परती भूमि के क्षेत्रफल में कमी आती जा रही है जिससे कृषि भूमि में पुनः उर्वरकता प्राप्त करने की प्राकृतिक प्रक्रिया अवरुद्ध हो गयी है। उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र तथा अर्द्धशुष्क कृषि क्षेत्र मानवकृत मृदा अपरदन तथा वायु अपरदन की समस्या से ग्रस्त हो गये हैं, जिसके कारण उन्हें भूमि निम्नीकरण की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।