भारत की सिन्धु नदी की घाटी में विश्व की सबसे प्राचीनतम सभ्यता फल-फूल रही थी। इस सभ्यता के नष्ट हो जाने के हजारों वर्षों के बाद जब लोगों ने इस क्षेत्र में रहना शुरू किया तो उन्हें समय-समय पर जुताई के दौरान या बाढ़ आदि से कटाव के कारण अनेक पुरावस्तुएँ प्राप्त हुई। यही पुरावस्तुएँ हड़प्पा सभ्यता की खोज का आधार बनीं । बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में पुरातत्वविद दयाराम साहनी को हड़प्पा क्षेत्र में कुछ मुहरें प्राप्त हुईं। पुरातत्वविद राखालदास बनर्जी को हड़प्पा क्षेत्र की मुहरों के समान कुछ मुहरें मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई।
ये मुहरें निश्चित रूप से आरंभिक ऐतिहासिक स्तरों से कहीं अधिक प्राचीन स्तरों से सम्बन्ध रखती थीं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहरों की समानता के आधार पर पुरातत्वविदों ने अनुमान लगाया कि यह दोनों पुरास्थल एक ही संस्कृति के भाग थे। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने 1924 ई. में सिन्धु घाटी में एक नयी सभ्यता की खोज की घोषणा की। जॉन मार्शल का कार्यकाल भारतीय पुरातत्व विभाग में क्रांतिकारी परिवर्तन का काल था। यह उनके ही प्रयत्नों का परिणाम था कि इस स्थान को सुरक्षित रखने के प्रबन्ध किए गए।
हड़प्पा सभ्यता का विस्तार-इस सभ्यता का विस्तार पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान, जम्मू तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। यह सभ्यता सिन्ध तथा पंजाब में फली-फूली और वहाँ से यह दक्षिण व पूर्व की ओर फैली। इसका क्षेत्रफल मिस्र तथा मेसोपोटामिया की सभ्यताओं से बड़ा था। यह सभ्यता उत्तर में मांडा (जम्मू), दक्षिण में दैमाबाद (अहमदनगर, महाराष्ट्र), पश्चिम में मकरान समुद्र तट पर सुत्कागेंडोर (बलूचिस्तान), पूर्व में आलमगीरपुर (मेरठ, उत्तर प्रदेश) तक विस्तारित थी।