मादा जननांग (Female reproductive system): अण्डाशय (ovary), अण्डवाहिनियाँ (oviducts), अवस्कर व अवस्कर द्वार (cloacal aperture) मिलकर मादा जननांग बनाते हैं।
(i) अण्डाशय (Ovary): प्रत्येक वृक्क के अधर तल पर अग्न भाग की ओर पीले रंग का एक अण्डाशय स्थित होता है। वृषण की भाँति, अण्डाशय भी उदर की पृष्ठ भित्ति व वृक्क से पेरीटोनियम की दोहरी झिल्ली अण्डाशयधर (mesovarium) द्वारा जुड़ा रहता है। अण्डाशय अनियमित आकार के आठ पिण्डों में बंटी एक छोटी संरचना है, जो प्रजनन ऋतु में परिपक्व व बहुत सारे अण्डों से भरी होने के कारण फूलकर देहगुहा के अधिकांश भाग को घेर लेती है। इस समय यह सफेद-काले रंग की दिखाई देती है।

अण्डाशय की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of Ovary): अण्डाशय का प्रत्येक पिण्ड छोटे-छोटे अनेक पिण्डकों में बंटा होता है। प्रत्येक पिण्डक में एक गुहा होती है जो दो पर्त मोटी भित्ति से घिरी होती है। भित्ति का बाहरी स्तर संयोजी ऊतक व भीतरी स्तर जनन उपकला (germinal epithelium) का बना होता है। जनन उपकला की कोशिकाएं विभाजित होकर छोटे-छोटे गुच्छक या पुटिकाएँ (follicles) बनाती हैं। पुटिका की एक कोशिका अन्य कोशिका से बड़ी हो जाती हैं। यही कोशिका परिवर्धित होकर अण्डाणु बनाती है। पुटिका की शेष कोशिकाएँ बड़ी कोशिका के चारों ओर एकत्रित होकर पुटिका स्तर (follicular layer) बनाती हैं। पुटिका स्तर की कोशिकाएँ (follicular cells) अण्डाणु का पोषण करती हैं। धीरे-धीरे केन्द्र स्थित कोशिका में पोषक पदार्थ पीतक (yolk) के रूप में इकट्ठे होने से कोशिका का आकार बढ़ता जाता है, जैसे-जैसे अण्ड कोशिका का आकार बढ़ता जाता है, पुटिका कोशिकाएं छोटी होती जाती हैं और अन्त में यह पीतक झिल्ली (vitelline membrane) का रूप धारण कर लेती हैं। अण्डाणु जब अण्डाशय से बाहर आता है तो इसी झिल्ली में बन्द होता है।
(ii) अण्डवाहिनी (Oviduct): मादा मेंढक के उदर में पार्श्व तल पर देहगुहा की पूरी लम्बाई में एक जोड़ी लम्बी, पतली व कुण्डलित नलिकाएँ फैली होती हैं जिन्हें अण्डवाहिनी कहते हैं। अण्डवाहिनियों का अण्डाशय से कोई संरचनात्मक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक नली का अगला सिरा ग्रसिका के पास फुफ्फुस के आधार के समीप पृष्ठ तल पर स्थित होता है। यह सिरा फूलकर एक चौड़ी कीपनुमा आकृति बनाता है। कीप के किनारे सिलिययित होते हैं। इस कीप को अण्डाशयी कीप (ovidutal funnel) व इसमें स्थित छिद्र को आस्य (ostium) कहते हैं। अण्डवाहिनी का पिछला सिर अवस्कर में खुलने से पूर्व कुछ फूलकर डिम्बकोष (ओवीसेक, ovisac) बनाता है। कुछ जन्तु विशेषज्ञ इसे गर्भाशय की संज्ञा देते हैं। परन्तु वास्तव में यह गर्भाशय नहीं है। गर्भाशय अण्डवाहिनी के उस भाग को कहते हैं, जहाँ भ्रूण का परिवर्धन होता है। चूंकि मेंढक में भ्रूण का परिवर्धन शरीर के बाहर होता है और इस भाग से अण्डे बाहर निकलने से पहले केवल कुछ समय के लिए संचित रहते हैं। इस अंग को गर्भाशय कहना उचित प्रतीत नहीं होता। डिम्बकोष एक पेपिला पर स्थित एक संकीर्ण छिद्र द्वारा अवस्कर में खुलता है।
(iii) अवस्कर (Cloaca): मादा मेंढक अवस्कर द्वार से अण्डों को बाहर निकाल देती है। ये अण्डे जैली द्वारा आवरित होते हैं।
आभासी मैथुन (Pseudocopulation) निषेचन (Fertilization) व परिवर्धन (Development): प्रजनन काल में नर मेंढक मादा मेंढक की पीठ पर चढ़ जाता है और अपने अग्र पादों से उसे मजबूती से जकड़ लेता है । नर एवं मादा के इस अस्थाई सम्पर्क को मैथुनी आलिंगन (Amplexus) अथवा आभासी मैथुन कहते हैं। क्योंकि मेंढक में मैथन अंगों का अभाव होता है।
नर व मादा मेंढकों का यह अस्थाई सम्पर्क कई घण्टों तक चलता है। इसी स्थिति में एक समय ऐसा आता है जब मादा मेंदक अवस्कर द्वार से अण्डक (ova) निकलते हैं जिनकी संख्या एक बार में 2500 से 3000 होती है। ये लसदार जैली (jelly) द्वारा आवरित रहते हैं। इसी समय नर मेंढक अपने अवस्कर द्वार से अण्डकों पर शुक्राणुओं को मुक्त कर देता है। अण्डाणु एवं शुक्राणु के संयुग्मन को निषेचन (fertilization) कहते हैं। मेंढक में यह घटना शरीर के बाहर होती है। निषेचन के फलस्वरूप युग्मनज (zygote) का निर्माण होता है। युग्मनज आगे चलकर विभाजन द्वारा टेडपोल (Tadpole) में परिवर्तित हो जाता है। टेडपोल कायान्तरण (metamorphosis) की क्रिया द्वारा वयस्क मेंढक में बदल जाता है।
आर्थिक महत्त्व (Economic Importance): मेंढक हमारे लिए लाभदायक प्राणी है। यह कीटों को खाता है और इस प्रकार फसलों की रक्षा करता है। मेंढक वातावरण में सन्तुलन बनाये रखते हैं, क्योंकि यह पारिस्थितिकी तन्त्र (Ecosystem) की एक महत्त्वपूर्ण भोजन श्रृंखला (food chain) की एक कड़ी है।
मेंढक की पिछली टाँगों को विश्व के कई भागों में खाने में प्रयुक्त किया जाता है। विशेषकर फ्रांस, जापान, अमेरिका में इन टाँगों को खाने में बड़ा पसन्द किया जाता है। अतः इन क्षेत्रों में मेंढक की टाँगों का व्यापार होता है।