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सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज गुजारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।

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सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप की कृषि उत्पादन व्यवस्था को महज "गुजारे के लिए खेती" कहना आंशिक रूप से सही है, क्योंकि इस काल में कृषि उत्पादन की प्रकृति और उद्देश्य दोनों में विविधता देखी जाती है।

कृषि उत्पादन और गुजारे की खेती का संदर्भ:

  1. गुजारे के लिए खेती की विशेषताएं:

    • यह खेती मुख्यतः परिवार की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए की जाती थी।

    • किसानों का उद्देश्य अनाज, दालें, और अन्य फसलें उगाकर अपने परिवार का पेट भरना होता था।

    • बाजार के लिए अधिशेष (surplus) उत्पादन सीमित था।

  2. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी का परिदृश्य:

    • मुग़ल काल में कृषि मुख्य आजीविका का साधन थी और ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा सीधे खेती में संलग्न था।

    • तकनीकी प्रगति सीमित थी, जिससे कृषि उत्पादकता भी कम थी।

गुजारे की खेती का समर्थन करने वाले कारण:

  1. तकनीकी सीमाएं:

    • लोहे के हल और बैल जैसे प्राथमिक उपकरणों का उपयोग होता था।

    • सिंचाई की प्राचीन विधियां (जैसे कुंए और नहरें) थीं, जो सीमित क्षेत्र में उपयोगी थीं।

  2. कृषि का उद्देश्य:

    • अधिकांश किसानों का उद्देश्य केवल अपने परिवार और स्थानीय समुदाय की खाद्य आवश्यकता को पूरा करना था।

    • नकदी फसलों की खेती सीमित थी।

  3. मौसम और जोखिम:

    • खेती मुख्यतः मानसून पर निर्भर थी। बारिश असफल होने पर अकाल और भुखमरी का खतरा रहता था।

    • किसान अक्सर न्यूनतम जोखिम वाले फसल चक्र अपनाते थे।

  4. कर प्रणाली का दबाव:

    • मुग़ल शासन के दौरान, किसानों से राजस्व के रूप में उपज का एक बड़ा हिस्सा लिया जाता था।

    • राजस्व भुगतान के बाद किसानों के पास शायद ही कुछ बचता था, जिससे उनका जीवन गुजारे पर सीमित था।

सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन और 'गुजारे के लिए खेती':

सोलहवीं और सत्रहवीं सदी भारत में कृषि का मुख्य उद्देश्य अधिकांशतः आत्मनिर्भरता और गुजारे के लिए उत्पादन करना था। इसे 'subsistence agriculture' या गुजारे के लिए खेती कहा जा सकता है, लेकिन इस अवधारणा को पूर्ण रूप से लागू करना सटीक नहीं होगा क्योंकि कुछ महत्वपूर्ण आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारक इसे चुनौती देते हैं।

कृषि उत्पादन और गुजारे की खेती का संदर्भ:

  1. गुजारे के लिए खेती की विशेषताएं:

    • यह खेती मुख्यतः परिवार की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए की जाती थी।

    • किसानों का उद्देश्य अनाज, दालें, और अन्य फसलें उगाकर अपने परिवार का पेट भरना होता था।

    • बाजार के लिए अधिशेष (surplus) उत्पादन सीमित था।

  2. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी का परिदृश्य:

    • मुग़ल काल में कृषि मुख्य आजीविका का साधन थी और ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा सीधे खेती में संलग्न था।

    • तकनीकी प्रगति सीमित थी, जिससे कृषि उत्पादकता भी कम थी।

गुजारे की खेती का समर्थन करने वाले कारण:

  1. तकनीकी सीमाएं:

    • लोहे के हल और बैल जैसे प्राथमिक उपकरणों का उपयोग होता था।

    • सिंचाई की प्राचीन विधियां (जैसे कुंए और नहरें) थीं, जो सीमित क्षेत्र में उपयोगी थीं।

  2. कृषि का उद्देश्य:

    • अधिकांश किसानों का उद्देश्य केवल अपने परिवार और स्थानीय समुदाय की खाद्य आवश्यकता को पूरा करना था।

    • नकदी फसलों की खेती सीमित थी।

  3. मौसम और जोखिम:

    • खेती मुख्यतः मानसून पर निर्भर थी। बारिश असफल होने पर अकाल और भुखमरी का खतरा रहता था।

    • किसान अक्सर न्यूनतम जोखिम वाले फसल चक्र अपनाते थे।

  4. कर प्रणाली का दबाव:

    • मुग़ल शासन के दौरान, किसानों से राजस्व के रूप में उपज का एक बड़ा हिस्सा लिया जाता था।

    • राजस्व भुगतान के बाद किसानों के पास शायद ही कुछ बचता था, जिससे उनका जीवन गुजारे पर सीमित था।

गुजारे की खेती से परे के पहलू:

हालांकि, यह सटीक नहीं होगा कि कृषि उत्पादन पूरी तरह गुजारे के लिए था। कुछ ऐसे कारक थे जो इसे व्यापक आर्थिक तंत्र का हिस्सा बनाते हैं:

  1. नकदी फसलों का महत्व:

    • कपास, गन्ना, नील, और मसाले जैसी नकदी फसलों की खेती मुग़ल काल में बढ़ने लगी।

    • ये फसलें स्थानीय बाजारों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार का हिस्सा बन गईं।

  2. बाजार अर्थव्यवस्था का उदय:

    • मुग़ल शासन में बड़े-बड़े शहरी केंद्र जैसे दिल्ली, आगरा, और लाहौर विकसित हुए।

    • इन शहरों की मांग को पूरा करने के लिए किसान अधिशेष उत्पादन करने लगे।

  3. व्यापार और राजस्व प्रणाली:

    • मुग़लों ने कृषि राजस्व संग्रह को व्यवस्थित किया, जिससे किसानों को नकदी में कर अदा करना पड़ा।

    • इससे किसान नकदी फसलों की ओर प्रेरित हुए।

  4. कृषि उत्पादकता और अधिशेष:

    • कुछ उपजाऊ क्षेत्रों (जैसे गंगा के मैदान और डेक्कन के पठार) में अधिशेष उत्पादन होता था, जो व्यापार और राज्य के लिए राजस्व का स्रोत बनता था।

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