माँ को इस बात का पछतावा था कि माँ होकर भी उसने अपनी पागल और गूँगी लड़की को अस्पताल में छोड़ दिया। उसे अपनी लड़की को अस्पताल में नहीं छोड़ना चाहिए था। न जाने, वह अस्पताल में माँ के बिना कैसे रहेगी। अस्पताल के लोग उस पर उचित ध्यान रख पाएँगे या नहीं। इन्हीं चिंताओं में डूबी माँ अपने कृत्य पर पछता रही थी।
अस्पताल से लौटने के बाद रात में न तो माँ को नींद आई और न ही पुत्र को। अपनी बहन, मंगु को जब से वह अस्पताल में छोड़ आया था, तब से उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसके कलेजे पर वेदना का काला पत्थर रख दिया गया हो। माँ की सिसकियों के साथ बहन की याद में उसकी भी आँखें गीली हो आई। वह अपनी बहन को याद करता रहा। राजभर, उसे नींद नहीं आई। पहली बार उसे वेदना का अनुभव हुआ था। अपनी वेदना से माँ की वेदना की तुलना करने पर उसे ऐसा लगा कि उसकी वेदना तो माँ की वेदना के सामने कुछ भी नहीं है। जब वह उस थोड़ी-सी वेदना से इतना त्रस्त था तब माँ का क्या हाल होगा-इसी सोच में उसका (पुत्र का; मंगु के भाई का) हृदय चीत्कार उठा-"माँ का यह दुःख किसी भी उपाय से टालना चाहिए। पुत्र होकर इतना भी मैं न कर सकूँ, तो मेरा जीना व्यर्थ है।"
उसके अंतर ने प्रतिज्ञा की "मैं मंगु को जीते-जी अच्छी तरह से पालूँगा। बहू उसका मल-मूत्र धोने को तैयार न होगी, तो मैं धोऊँगा।"