भारत के राष्ट्रगीत में पंक्ति आई है- 'जन-गण-मन-अधिनायक जय हे, भारत-भाग्य-विधाता!' इस पंक्ति के 'अधिनायक' शब्द को लेकर कवि रघुवीर सहाय ने 'अधिनायक' शीर्षक से एक कविता का प्रणयन किया है। राष्ट्रगीत का 'अधिनायक' शब्द राष्ट्रदेवता के लिए प्रयुक्त हुआ है और 'अधिनायक' शीर्षक कविता का 'अधिनायक' शब्द व्यंग्य के लिए प्रयुक्त हुआ है। राष्ट्रगीत में 'भारत भाग्य विधाता' समस्त पद आता है और 'अधिनायक' शीर्षक कविता में भी 'भारत-भाग्य-विधाता' समस्त पद का प्रयोग हुआ है। कवि ने 'भारत-भाग्य विधाता' 'अधिनायक' की व्याख्या राजनीतिक यथार्थ के संदर्भ में की है।
कवि प्रश्न करता है कि राष्ट्रगीत में जिस 'भारत-भाग्य विधाता' और जन-गण-मन के अधिनायक की चर्चा हुई है, आखिर वह कौन है? क्या वही जन-गण-मन का अधिनायक और भारत के भाग्य का विधाता है जो अपने धनबल और बाहुबल से राजनीति के शीर्ष पर प्रतिष्ठित हो जाता है? क्या जनता का वही प्रतिनिधि भारत का भाग्य विधाता है जो जनता से हमेशा अपनी दूरी बनाए रखता है? क्या जन-गण-मन का अधिनायक वही है जो जनता द्वारा चुने जाने के बाद जनता से केवल अपनी स्तुति करवाता है, जनता के हित के लिए कुछ नहीं सोचता ? क्या वही जनता का अधिनायक है जो जनता में डर पैदा कर उससे अपने लिए वोट ले लेता है और फिर जनता को अपना दास बना लेता है? क्या राजसी ठाठ-बाट में रहनेवाला जनता का सही प्रतिनिधि हो सकता है? कवि को इस बात का आश्चर्य है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में 'अधिनायक' शब्द राष्ट्रगीत में कैसे गृहीत हुआ।