हजारों-लाखों वर्ष पूर्व का आदिमानव (primitive man) स्वयं एक वन्य प्राणि था जो भोजन के लिए अन्य वन्य प्राणियों का शिकार करता था। सभ्यता (civilization) और संस्कृति (culture) के उदय के साथ-साथ, प्रागैतिहासिक (prehistoric) मानव में वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम और इनके साथ सहअस्तित्व की भावना का भी उदय हुआ। प्रारम्भ में प्रागैतिहासिक मानव ने, शिकार में सहायता हेतु, कुत्तों को पाला। भूवैज्ञानिक (geological) प्रमाणों से पता चलता है कि बाद में, लगभग 5000 वर्ष पूर्व की सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus valley civilization) तक, गाय एवं बैल, भैंस, हाथी, बकरी, मछलियाँ, मगरमच्छ आदि कई प्रकार के वन्य प्राणी मानव-जीवन से सम्बद्ध हो गये।
इनके अतिरिक्त भी, भित्ति-चित्रणों में और सिक्कों, बर्तनों आदि पर खुदाई में शेर, बाघ, गैंडे, सर्प, बन्दर आदि कुछ ऐसे वन्य प्राणियों का समावेश हो गया जिनसे कि मानव घबराता या डरता था। इसके बाद, ईसापूर्व के धार्मिक दर्शनों (religious philosophies), जैसे कि हिन्दू धर्म (Hinduism), बौद्ध-धर्म (Budhhism), जैन- धर्म (Jainism) आदि में, वन्य प्राणियों के वध को रोकने हेतु, ‘अहिंसा (Ahimsa or non-violence) धार्मिक सिद्धान्त (sacred tenet) के रूप में अपनाया गया। आर्यों (Aryans) ने शेर, मृग, सारस, मोर, हाथी, बकरी, घड़ियाल, बैल, गरुड़ (eagle), बत्तख आदि को देवी-देवताओं की सवारियाँ (mounts) मानकर इनका सम्मान किया।
इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से सिद्ध होता है कि मानव-कल्याण वन्य प्राणियों के साथ सहअस्तित्व में छिपा हुआ है अर्थात् यदि मानव वन्य प्राणियों के साथ प्रेमभाव से रहेगा तो उनका कल्याण निश्चित है। परन्तु यदि वह उनका विनाश करता है तो कुछ समय पश्चात्, उनकी हानि परिलक्षित होने लगेगी।