विवेकानंद कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा ही अव्यक्त ब्रह्म है। बाहरी और आन्तरिक मन को संतुलित कर, इस अन्तर्निहित ब्रह्म को, इस आत्मिक ब्रह्म को अभिव्यक्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। वे कहते हैं- कर्म, भक्ति एवं योग इनमें से किसी एक या सबके सम्मिलन से इस ध्येय को, उद्देश्य को प्राप्त कर लो और मुक्त हो जाओं। यही धर्म का सार है। विभिन्न मत, विधि तथा अनुष्ठान, गंध, मंदिर – ये सब गौण हैं। ढोंगी बनने की अपेक्षा नास्तिक बनना अच्छा है।