कर्मचन्द दादाजी का मँझला लड़का था। वह उनके पास बैठा पाँव दबा रहा था। बच्चे आँगन में बरगद की पूरी डाल लाकर लगा रहे थे और उसे पानी दे रहे थे। दादाजी कहते हैं कि बच्चे नहीं जानते कि पेड़ से टूटी डाली जल देने से नहीं पनपती। एक बार पेड़ से जो डाली टूट गई, उसे लाख पानी दो, उसमें वह सरसता न आएगी। हमारा यह परिवार बरगद के पेड़ के समान है। इसे सुनकर कर्मचन्द कहता है शायद अब इस पेड़ से एक डाली टूट कर अलग हो जाए। दादाजी के पूछने पर कर्मचन्द कहता है कि छोटी बहू अलग होना चाहती है। उसके मन में दर्प की मात्रा कुछ ज्यादा है। मैंने जो मलमल के थान और रजाई के अबरे लाकर दिये थे वे उसे पसंद नहीं आये। वह अपने मायके के घराने को इस घराने से बड़ा समझती है और घृणा की दृष्टि से देखती है।