कठिन शब्दार्थ-साजि = सजाकर। चतुरंग सैन = हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक चार अंगों से युक्त सेना। अंग = शरीर। उमंग = उत्साह। धरि = धारण करके। सरजा = शिवाजी की उपाधि। जंग = युद्ध। भनत = कहते हैं। नाद= शब्द। बिहद = भारी, घोर। नगारन के = युद्ध के नगाड़ों के। नद = विशाल नदी। मद = मत्त हाथी की कनपटी से टपकने वाला द्रव। गैबरन = हाथियों। रलत है = बहते हैं। ऐल फैल = सेना के फैलने या चलने से। खैल-मैल = खलबली, भय। खलक = संसार। गैल-गैल = गली-गली या सभी मार्गों पर। गजन की = हाथियों की वैल-पैल = धक्कों से। सैल = पर्वत। उसलत = उखड़ते। तारा सौ = तारे के समान (छोटा)। तरनि = सूर्य। धूरि-धारा = धूल का उड़ना। जिमि = जैसे। धारा = थाल। पारा = एक द्रव अवस्था में रहने वाली धातु। पारावार = समुद्र। यों हलते है = इस प्रकार हिलता है।
संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत कवित्त छंद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित क़वि भूषण के छंदों से लिया गया है। इस छंद में कवि, शिवाजी की विशाल सेना के युद्ध के लिए जाते हुए समय का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन कर रहा है।
व्याख्या-कवि भूषण कहते हैं-जब शिवाजी युद्ध में विजय पाने के लिए विशाल सेना सजाकर और मन में उत्साह भर कर चलते हैं तो सेना के नगाड़ों का भारी नाद गूंजने लगता है। हाथियों की कनपटियों से टपकने वाले मद से नदी और नद बहने लगते हैं। शिवाजी की सेना के आगे बढ़ने पर सारे संसार की गली-गली में खलबली मच जाती है और सेना के असंख्य हाथियों के धक्कों से पर्वत भी उखड़ने लगते हैं। विशाल सेना के चलने से उड़ने वाली धूल में सूर्य भी एक तारे के जैसा टिमटिमाता दिखाई देता है और धरती के हिलने से समुद्र भी इस प्रकार डोलने लगता है जैसे थाल पर रखा पारा थाल को लेकर चलने पर इधर-उधर ढुलको करता है।
विशेष-
(i) शिवाजी की सेना के रणक्षेत्र के प्रस्थान को दृश्य अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन-शैली में हुआ है।
(ii) शब्द-चयन ओज उभारने वाला है। “ऐलफल ……………………… गैल-गैल” में नाद सौन्दर्य है।
(iii) “ऐलफल ……………………. सैल उसलत हैं।” में अनुप्रास अलंकार, ” तारा सौ ………………… लगत” तथा “धरा पर ………………… यों हलत है।” में उपमा अलंकार है।
(iv) वीररस की झलक उत्साह जगाने वाली है।