'जग-जीवन’ के प्रति कवि बच्चन के विचारों में कई अन्तर्विरोध दिखाई देते हैं। वह आरम्भ में कहते हैं- “मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।” यहाँ कवि संसार का भार उठाए हुए भी प्यार निभाने का संकल्प व्यक्त कर रहा है। किन्तु अगले ही छंद में वह कह उठता है
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ।” यहाँ ‘जग’ से कवि का आशय जगत के स्वार्थी और मनसुहानी बातें सुनने के आदी लोगों से है। यह लोग उन्हीं को पूछते हैं, सम्मान देते हैं, जो उनके मन को भाने वाली बात कहे। स्वाभिमानी कवि बच्चन को भला यह कैसे स्वीकार हो सकता था।
कवि के जगत से कई मतभेद भी हैं। वह संसार को अपूर्ण मानता है। दान-पुण्यों के सहारे भवजाल पार रखने की चाह रखने वाला, बुद्धिमानी के अहंकार के साथ सत्य की खोज न करने वाला, जगत उन्हें मूर्ख प्रतीत होता है। वह जगत से अपेक्षा रखते हैं कि वह उनको एक कवि के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘नए दीवाने’ के रूप में अपनाए।
अंत में वह जगत को मस्ती और मुक्त प्रेम का संदेश भी देते हैं। जगत के प्रति बच्चन जी के दृष्टिकोण का यही सार है।