प्रत्येक प्राणी होश सँभालते ही अपने चारों ओर दुःखपूर्ण संसार रच लेता है। इसको क्रमश: अपने ज्ञान-बल से तथा कुछ बाहुबले से सुखमय बनाता है। क्लेश और बाधा को वह जीवन का सामान्य हिस्सा तथा सुख को उसका अपवाद समझता है। धीरे-धीरे मनुष्य की आयु बढ़ती है और उसके ज्ञान तथा शारीरिक शक्ति की वृद्धि होती है। उसके परिचय-क्षेत्र का विस्तार होता है तथा उसके ज्ञान की भी वृद्धि होती है। पहले वह अपने माता-पिता के सम्पर्क में आता है तथा धीरे-धीरे परिवार तथा बहुत से लोग उसके सामने प्रतिदिन आते हैं। वह जान लेता है कि ये लोग उसको सुख पहुँचाएँगे, दु:ख नहीं देंगे। धीरे-धीरे उसकी झिझक खुलती जाती है। उसका ज्ञान बढ़ता जाता है। उसका आत्मबल तथा शारीरिक बल भी बढ़ता जाता है। तब वह :ख से मुक्त होने के लिए तथा सुख पाने के लिए उनका उपयोग करता है।
अपने आस-पास के लोगों, पशुओं, विश्वासों आदि से दु:खी होने का जो भय उसके मन में रहता है वह धीरे-धीरे दूर होता है। शारीरिक बल की वृद्धि भी उसमें आत्म-विश्वास पैदा करती है तथा उसको दु:ख सहने तथा उसे हटाकर सुख पाने की अपनी शक्ति पर विश्वास हो जाता है। यह सब धीरे-धीरे विकास के सामान्य नियम के अनुसार होता है।