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“सभ्यता से अन्तर केवल इतना पड़ा है कि दुःख-दान की विधियाँ बहुत गूढ़ और जटिल हो गई हैं।” पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।

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आगामी दु:ख की कल्पना अथवा सम्भावना से मनुष्य भयभीत होता है। आरम्भ में उसको अपरिचितों, पशुओं तथा कुछ प्रचलित काल्पनिक विश्वासों से भी डर लगता है। संसार में दु:ख को वह अपने चारों ओर बिखरा पाता है। दु:ख के कारण भी सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। असभ्य जातियों में दूसरों से कष्ट पाने तथा भयभीत होने का भाव अधिक पाया जाता है। सभ्यता का विकास होने पर मनुष्य को भरोसा हो जाता है कि लोग उसको दु:ख नहीं पहुँचाएँगे। समाज और कानून उनको ऐसा नहीं करने देगा।

सशक्त जन अशक्तों को दु:ख देते ही हैं। धन-सम्पन्न लोग तथा देश निर्धनों का शोषण करते ही हैं। दूसरों को दु:ख देने की यह परम्परा नई नहीं है। सभ्यता के विकास के साथ दूसरों को दु:खी करने और सताने के तरीके अवश्य बदल गए हैं। पहले कोई भी शक्तिशाली मनुष्य दूसरे के बाग-बगीचे, जमीन, घर-मकान, रुपया-पैसा आदि को जबरदस्ती उससे छीन लेता था और वह कुछ नहीं कर पाता था। लूटपाट का यह रूप सभ्यता के विकास के साथ बदल गया है। अब बलात् अपनी सम्पत्ति छीने जाने का डर तो मनुष्य को नहीं सताता परन्तु उसका एक दूसरा रूप उसको आतंकित करता रहता है। आज कोई चालाक आदमी नकली कानूनी दस्तावेज तैयार कराकर, झूठे गवाह अदालत में पेश करके तथा वकीलों को पैसा देकर अदालत में बहस कराकर किसी दूसरे की सम्पत्ति को हड़पने में समर्थ हो सकता है। कानून का सहारा लेकर वह उसको उसकी सम्पत्ति से वंचित कर सकता है तथा स्वयं उसका मालिक बन सकता है।

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