परिचय-‘ भय’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा विरचित मनोविकारों से सम्बन्धित एक निबन्ध है। शुक्ल जी के चिन्तामणि’ नामक निबन्ध-संग्रह में उत्साह, करुणा, श्रद्धा-भक्ति, क्रोध आदि निबन्ध संग्रहीत हैं। उनमें से ही ‘ भय’ भी एक है।
भय का भाव-किसी भावी आपदा की भावना या दु:ख के कारण के सामने आने पर जो आवेगपूर्ण तथा स्तम्भित करने वाला मनोविकार उत्पन्न होता है, उसको ‘भय’ कहते हैं। क्रोध और भय दोनों दु:ख के कारण से सम्बन्धित हैं। दु:ख के कारण का स्वरूप बोध क्रोध उत्पन्न करता है। भय उससे बचने का प्रेरक होता है। भय के लिए दु:ख का कारण जानना जरूरी नहीं होता। दु:ख या हानि होने का आभास होते ही भय उत्पन्न होता है। भय के दो रूप हैं-साध्य और असाध्य। जो प्रयत्न करने पर दूर हो सके वह साध्य तथा प्रयत्न करने पर भी जिससे बचा न जा सके वह असाध्य विषय है। किसी विषय के साध्य अथवा असाध्य होने की धारणा परिस्थिति या मनुष्य की प्रकृति पर अवलम्बित होती है। जो मनुष्य साहसी नहीं होता अथवा कठिनाइयों से संघर्ष करने का अभ्यस्त नहीं होता, वह दु:ख के कारण को अपरिहार्य मानकर भय के कारण स्तम्भित हो जाता है। किन्तु साहसी पुरुष भय से बचने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है।
भीरुता या कायरता-भय का सामना न कर उससे बचने के लिए भागना जब मनुष्य की आदत बन जाती है तो उसे भीरुता या कायरता कहते हैं। इसमें कष्ट सहन करने की क्षमता में अविश्वास ही प्रधान कारण है। यह भीरुता का बहुत पुराना रूप है। अर्थ हानि की आशंका से व्यापारी किसी विशेष व्यापार में हाथ नहीं डालते तथा हारने पर मानहानि के डर से कुछ पण्डित शास्त्रार्थ से दूर रहते हैं।
यद्यपि स्त्रियों की भीरुता रसिकों के आनन्द का विषय होती है। पुरुषों की भीरुता सदैव निन्दनीय होती है। कुछ लोग धर्म भीरुता को प्रशंसनीय मानते हैं। किन्तु धर्म से डरने वालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होने वाले प्रशंसा के पात्र अधिक हैं।
आशंका और आशा-दु:ख का पूर्ण निश्चय न होने पर उसकी सम्भावना मात्र के अनुमान से उत्पन्न होने वाले आवेग रहित भय को आशंका कहते हैं। आशंका का संचार धीमा किन्तु अधिक समय तक स्थायी रहता है। दु:ख के वर्ग वाले भावों में जो स्थिति आशंका की है वही सुख के वर्ग के भावों में आशा की है। वन के रास्ते में चीता मिलने की आशंका पर यात्री चलता रह सकता है, परन्तु इसके निश्चय में बदलने पर पूर्ण भय की दशा में वह पीछे लौट जाएगा अथवा वहीं रुक जाएगा।
भय का स्थायित्व और उससे रक्षा-संज्ञान प्राणियों तथा सभ्य समाज के लोगों में भय का फल भय के संचार काल तक ही रहता है। वहाँ भय के द्वारा स्थायी सुरक्षा सम्भव नहीं होती। असभ्य तथा जंगली लोगों में भय से सुरक्षा अधिक समय तथा स्थान तक होती है। जंगली तथा असभ्य लोगों में भय अधिक होता है। वे जिससे भयभीत होते हैं, उसकी पूजा करते हैं। उनके देवता भय के भाव से ही बनते हैं। डराने वाले का सम्मान असभ्यता का लक्षण है। भारत में इसी कारण किसी विद्वान की अपेक्षा थानेदार का सम्मान अधिक होता है।
भय से मुक्ति-बच्चों में तथा पशुओं में भय का भाव अधिक पाया जाता है। बच्चे किसी अपरिचित को देखते ही घर के भीतर भागते हैं। अज्ञात तथा अपरिचित से भय प्रत्येक प्राणी में होता है। इनका निवारण मनुष्य अपने ज्ञानबल तथा बाहुबल से करता है। सभ्यता के विकास के साथ भय कम होता जाता है। भूतों का डर तथा पशुओं का डर तो अब कम हो गया है किन्तु मनुष्य का भय मनुष्य को अभी तक बना हुआ है। मनुष्य ही मनुष्य को दु:ख देता है। सभ्यता के विकास के साथ ही दु:ख पहुँचाने के तरीके भी बदल गए हैं। अब किसी के द्वारा बलात् धन-सम्पत्ति छीने जाने की आशंका तो कम हो गई है किन्तु नकली दस्तावेजों, झूठे गवाहों तथा कानूनी दाँव-पेंच के बल पर इन चीजों को छीने जाने की सम्भावना बढ़ गई है। आज जाति तथा देशों के बीच एक-दूसरे से डरने के स्थायी कारण उत्पन्न हो गए हैं। सबल और निर्बल देशों के बीच शोषण का तथा दो सबल देशों के मध्य आर्थिक संघर्ष का भय पैदा हो गया है। शोषण की यह व्यवस्था सार्वभौम है तथा निरन्तर चल रही है। इसका कारण पूरे विश्व में चल रही लाभ कमाने की भावना है। उन देशों की सरकारें भी इसको संरक्षण दे रही हैं। वर्तमान अर्थोन्माद को नियन्त्रित करने के लिए पवित्र तथा उच्च आदर्शों वाले प्रशासकों की आवश्यकता है।
सुख और निर्भयता-सुखी रहना और आतंक से मुक्त रहना प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है। ये दोनों बातें प्रयत्नसाध्य हैं। निर्भयता के लिए दो बातें आवश्यक हैं। एक, हम किसी को न कष्ट पहुँचाएँ और न डराएँ, दूसरी किसी में हमें सताने या डराने की हिम्मत न हो। इनमें पहली बात शील से तथा दूसरी शक्ति और पुरुषार्थ से सम्बन्धित है। किसी को न डराने से भय से मुक्ति नहीं मिल सकती। दुष्ट लोग दूसरों को भयभीत करते ही हैं। उनको उनमें दण्ड के भय का संचार करके ही रोका जा सकता है।