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बाजार किसी का धर्म, जाति, रंग, लिंग या क्षेत्र नहीं देखता वह सिर्फ उसकी क्रय-शक्ति देखता है। इस तरह वह सामाजिक समता की रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?

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बाजार एक ऐसी संस्था है जहाँ चीजें खरीदी और बेची जाती हैं। बाजार समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला स्थान है। यहाँ सभी आ सकते हैं। बाजार आने वाला का धर्म, जाति, रंग, लिंग या क्षेत्र नहीं देखा जाता। बाजार में हिंदू दुकानदार भी होते हैं और मुस्लिम भी। ग्राहक भी सभी धर्मों के लोग होते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही बाजार जा सकते हैं।

बाजार जाने वाले की केवल एक ही चीज देखी जाती है, वह है उसकी क्रय-शक्ति । कोई मनुष्य बाजार में कितना धन खर्च कर सकता है और कितनी चीजें खरीद सकता है, यह देखना ही बाजार का विषय है। जिस मनुष्य के पास धन नहीं है, वह चाहे किसी भी जाति-वर्ग का हो, उसको बाजार से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।

इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि बाजार की दृष्टि में सभी मनुष्य समान होते हैं। वह कोई भेदभाव नहीं करता। बाजार समतामूलक समाज बनाने में योग दे रहा है। यदि गंभीरतापूर्वक देखा जाय तो ऐसा नहीं है। साम्प्रदायिक दंगे होते हैं तो एक वर्ग के लोग दूसरे की दुकानें जलाने में संकोच नहीं करते। पड़ौसी दुकानदार आमने-सामने आ जाते हैं। आर्थिक श्रेत्र में बाजार समानता को व्यवहार नहीं करता। वहाँ अमीर-गरीब ग्राहकों में भेदभाव होता है। गरीब व्यक्ति की ऊँची दुकानों में घुसने की हिम्मत भी नहीं होती।

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