'बाजार दर्शन’ निबंध में बाजार जाने के सन्दर्भ में मन की निम्नलिखित स्थितियों का उल्लेख हुआ है –
(क) खाली मन – खाली मन उसकी वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य को बाजार जाने पर यह पता नहीं होता कि उसकी आवश्यकता क्या है? वह बाजार से क्या खरीदेगा? इस अवस्था में वह बाजार की चकाचौंध से प्रभावित होकर अनाप-शनाप अनावश्यक चीजें खरीदता है। बाद में चीजों की अधिकता उसको आराम की जगह परेशानी ही देती है। उसका पैसा भी बर्बाद होता है।
(ख) खुला मन – मन खुला होने का आशय यह है कि बाजार जाने वाले को अपनी जरूरत का स्पष्ट ज्ञान हो। जैसे भगत जी जानते हैं कि उनको काला नमक तथा जीरा पंसारी की दुकान से खरीदना है। खुले मन वाले व्यक्ति पर बाजार का जादू नहीं चलता। वह अपनी जरूरत की चीजें खरीदकर बाजार को सार्थकता प्रदान करता है। वह फिजूलखर्ची से भी बचा रहता है।
(ग) बन्द मन – मन खुला नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि मन बन्द है। मन में इच्छाएँ पैदा न होना, उसका कामनामुक्त होना, मन का बन्द होना है। मन को बन्द करने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। यह अधिकार तो परमात्मा का है। परमात्मा स्वयं सम्पूर्ण है। उसी में इच्छामुक्त होने की शक्ति है। मनुष्य अपूर्ण है। उसमें इच्छाएँ पैदा होना स्वाभाविक है। मन में बलपूर्वक इच्छा पैदा न होने देना उसका दमन करना है। मनुष्य के लिए ऐसा करना न संभव है और न उचित ।