पैसे में शक्ति होती है। पैसे को पावर कहा जाता है। इस शक्ति को पैसे की ‘पर्चेजिंग पावर’ अथवा क्रय-शक्ति कहा जाता है। पैसे के बल पर मनुष्य मकान कोठी, कोई भी सम्पत्ति, सामान आदि खरीद सकता है। इससे मनुष्य का श्रम तो खरीदा ही जाता है, उसकी ईमानदारी और शुचिता भी खरीदी जाती है। साहित्य में ऐसे प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।
पैसे की यह शक्ति अटल होती है किन्तु कभी-कभी इसकी अनिर्वायता भंग होती भी देखी जाती है। ऐसी दशा में पैसा शक्तिहीन हो जाता है। पैसे की शक्ति का प्रमाण हमको मुंशी प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’ में मिलता है। जमींदार पंडित अलोपीदीन की चोरी से नमक ले जाती गाड़ियाँ दरोगा जी द्वारा पकड़ी जाती हैं। पंडित जी को इस अपराध के लिए पकड़कर न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है।
वहाँ बड़े-बड़े वकील उनकी पैरवी में खड़े हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनकी आवभगत में जुट जाता है। पंडित अलोपीदीन धन के बल पर न्यायालय में निरपराध सिद्ध होते हैं तथा मुक्त हो जाते हैं। दूसरी ओर ईमानदार दरोगा बंशीधर को कर्तव्यपालन में असावधान मानकर चेतावनी दी जाती है। उनकी नौकरी चली जाती है।
शक्तिहीनता – पैसे की शक्तिहीनता का प्रमाण भी हमें इसी कहानी में मिलता है। नदी तट पर दरोगा बंशीधर को नमक की गाड़ियाँ छोड़ने के लिए चालीस हजार रुपये तक की रिश्वत पेश की जाती है किन्तु ईमानदार बंशीधर उसे स्वीकार न करके जमींदार अलोपीदीन को बंदी बना लेते हैं। यहाँ धन-बल की पराजय और शक्तिहीनता स्पष्ट दिखाई देती है। पैसे से सब कुछ नहीं खरीदा जा सकता। ये दोनों ही प्रसंग साहित्य से सम्बन्धित हैं किन्तु यथार्थ जीवन में भी कभी-कभी ऐसा होता देखा जाता है।