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महत्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।

आदमियों की तिजारत करना मूर्खा का काम है। सोने और लोहे के बदले मनुष्य को बेचना मना है। आजकल भाप की कलों का दाम तो हजारों रुपया है; परंतु मनुष्य कौड़ी के सौ-सौ बिकते हैं। सोने और चाँदी की प्राप्ति से जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। सच्चा आनंद तो मुझे मेरे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाय तो फिर स्वर्गप्राप्ति की इच्छा नहीं, मनुष्य-पूजा ही सच्ची ईश्वर-पूजा है। मंदिर और गिरजे में क्या रखा है? ईंट, पत्थर, चूना कुछ ही कहो-आज से हम अपने ईश्वर की तलाश मंदिर, मस्जिद, गिरजा और पोथी में न करेंगे। अब तो यही इरादा है कि मनुष्य की अनमोल आत्मा में ईश्वर के दर्शन करेंगे। यही आर्ट है-यही धर्म है। मनुष्य और मनुष्य की मजदूरी का तिरस्कार करना नास्तिकता है।

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कठिन शब्दार्थ-तिजारत = व्यापार, खरीदना-बेचना। कल = मशीन। कौड़ी के सौ-सौ बिकना = कीमती न होना, सस्ता होना। तलाश = खोज। गिरजा = ईसाई धर्म का पूजास्थल। पोथी = धार्मिक पुस्तक। इरादा = विचार। अनमोल = अमूल्य। आर्ट = कला। तिरस्कार = अपमान। नास्तिकता = निरीश्वरवाद।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘मजदूरी और प्रेम’ पाठ से उद्धृत है। इसके लेखक सरदार पूर्ण सिंह हैं। अध्यापक पूर्ण सिंह श्रमपूर्ण जीवन को ही सफल मानते हैं। श्रम को खरीदा नहीं जा सकता। उसको मूल्य प्रेम द्वारा ही अदा किया जा सकता है। अपने काम में लीन रहना तथा श्रमपूर्ण जीवन बिताना ही ईश्वर की पूजा है।

व्याख्या- लेखक कहता है कि मनुष्य के श्रम को खरीदना और बेचना बुद्धिमानों को काम नहीं है। धातु निर्मित सिक्कों में मनुष्य के परिश्रम की कीमत नहीं दी जा सकती। आजकल श्रमिक के श्रम को बहुत सस्ता कर दिया गया है। भाप से चलने वाली मशीनों की कीमत तो हजारों रुपये होती है। किन्तु मनुष्य मारे-मारे फिरते हैं। उनको कोई पूछता ही नहीं। सोना-चाँदी अर्थात् धन एकत्र करने की होड़ लगी है। किन्तु धन से मनुष्य को सच्चा सुख नहीं मिल सकता। जीवन का सच्चा सुख तो काम करने से मिलता है। लेखक को अपना काम मिल जाये तो उसको स्वर्ग को पाने की इच्छा भी नहीं होगी। उसको अपने काम से ही बड़ी-से-बड़ी खुशी प्राप्त होती है। मनुष्य की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा होती है। मंदिरों और गिरजाघरों में ईश्वर नहीं रहता। वहाँ ईंट, पत्थर और चूने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ईश्वर तो वहाँ है ही नहीं। मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों और धार्मिक पुस्तकों में ईश्वर को तलाश करना बेकार है। इनके सहारे ईश्वर को नहीं पाया जा सकता। मनुष्य की अमूल्य आत्मा में ही ईश्वर रहता है। ईश्वर के दर्शन के लिए मनुष्य की आत्मा में झाँकने की जरूरत है। इसी को कला और धर्म कहते हैं। मनुष्य और उसके श्रम की उपेक्षा को ही निरीश्वरवाद कहते हैं।

विशेष-
(i) मानव पूजा ही सच्ची ईश्वरपूजा है। मनुष्य और उसके श्रम की उपेक्षा नास्तिकता है।
(ii) श्रमिक का श्रम अमूल्य है। उसको सोने-चाँदी के बदले नहीं खरीदा जा सकता।
(iii) भाषा सरल है तथा उसमें अद्भुत प्रवाह है।
(iv) शैली भावात्मक है।

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