किसी वस्तु का केवल रेखाओं से बनाया हुआ चित्र रेखाचित्र कहलाता है। इसे स्केच और खाका भी कहते हैं।
जिस प्रकार चित्रकार अपनी कलम से रेखाएँ खींचकर किसी चित्र को इस तरह उतार देता है कि वह यथार्थ प्रतीत होता है और उसमें वर्णित चित्र हमारी आँखों के सामने उभरकर आ जाता है। हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हम प्रत्यक्ष में उसमें वर्णित वस्तु को देखें रहे हैं।
महादेवी ने भी ‘गौरा’ में शाब्दिक रेखाओं द्वारा गौरा और लालमणि का ऐसा चित्रांकन किया है जिसे पढ़कर लगता है मानो गौरा और लालमणि हमारे सामने ही खड़े हैं। गौरा की रोमावलियों में कान्ति है, गौरांग उज्ज्वल धवल शरीर है। पैर लचीले हैं पर पुष्ट हैं, पुढे भरे हैं, पीठ पर चिकनाहट है, गर्दन लम्बी है पर सुडौल है, सींग छोटे-छोटे निकलते हुए हैं, कान कमल की दो अधखुली पंखुड़ियों जैसे हैं। पूँछ लम्बी है और छोर पर काले बाल हैं जो चामर से लगते हैं। सम्पूर्ण शरीर पर एक ओज है। बड़ी चमकीली और काली आँखें हैं। जिन पर आरती की लौ पड़ती है तो ऐसा लगता है मानो बहुत से दिये झिलमिला रहे हों अथवा काली लहर पर किसी ने कई दिये प्रवाहित कर दिये हों। आँखों में आत्म-विश्वास झलकता है। हाथ फेरने पर गौरा महादेवी के कन्धे पर अपना मुख रख देती । गौरा के अन्तिम क्षणों का भी चित्रण बड़ा यथार्थ है। वह दुर्बल और शिथिल हो गई है। अन्तिम समय में महादेवी के कन्धे पर सिर रख देती है। शब्दों द्वारा इस प्रकार वर्णन किया है कि गौरा का चित्र आँखों के सामने उभरकर आ जाता है। लगता है जैसे गौरा हमारे सामने है और हम उसे स्वस्थ रूप में और अन्तिम समय के रूप में देख रहे हैं। महादेवी के शब्दों में वह शक्ति है जो एक चित्र उभार देते हैं।
लालमणि का चित्रांकन भी इसी प्रकार का है। उसका वर्ण लाल गेरू के पुतले जैसा लगता है। माथे पर पान के आकार का सफेद टीका है। पैरों में खुरों के पास सफेद वलय हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गेरू की वत्समूर्ति को चाँदी के आभूषणों से अलंकृत कर दिया गया है। वह किस तरह उछलता-कूदता है। माँ का दूध पीने के लिए किस प्रकार गौरा को उठाने का प्रयत्न करता है। सारा वर्णन आँखों के सामने उभर आता है। चित्रकार रेखाओं से चित्र बनाता है। महादेवी ने शब्दों की रेखाओं से चित्र बनाया है। अत: स्पष्ट है कि यह एक सफल रेखाचित्र है।