कबीर दास जी ने आँधी के रूपक द्वारा हृदय में ज्ञानोदय से होने वाले परिवर्तनों का बड़ा रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है। मन में सारे दुर्गुणों का निवास अज्ञान के संरक्षण में ही होता है, परन्तु जब साधु या साधक की साधना से ज्ञान की प्रवेश होता है तो सारे दुर्गुण स्वतः ही हृदये से दूर हो जाते हैं। जब ज्ञान की आँधी ने साधक की मनोभूमि में प्रवेश किया तो भ्रमरूपी टाट का पर्दा उड़ गया। भ्रम के दूर होते ही भला माया कैसे टिक पाती ! माया के बंधन भी छिन्न-भिन्न हो गए। अज्ञान की कुटिया अब कैसे बच पाती ? हित और चित अर्थात् द्विविधा रूपी जिन दो खम्भों पर इसकी छावन टिकी थी, वे भी नीचे आ गिरे और इन पर टिकी हुई मोहरूपी बल्ली भी दो टुकड़े हो गई। अब भला ‘छानि’ अर्थात् छप्पर किस पर टिका रहता ? वह भी नीचे गिरा और उसके नीचे सम्हाल कर रखे कुबुद्धि रूपी बर्तन-भाँड़े भी फूट गए।
इस प्रकार भ्रम से आरम्भ होकर कुबुद्धि पर्यन्त जितने भी मनोविकार थे, सभी एक-एक करके मन से बाहर हो गए। अज्ञान-कुटी ध्वस्त हो गई अब ज्ञानी कबीर द्वारा अपनी ज्ञान कुटी का योग और युक्ति के बंधन द्वारा नव निर्माण किया गया है। इस अचूक ज्ञान कुटी पर कितनी भी विकारों की वर्षा हो, एक बूंद भी नहीं छू पाएगी। इस प्रकार कवि कबीर ने संकलित पद में रूपक के माध्यम से ज्ञान और योग की महत्ता का प्रतिपादन किया है।