सीखने या अधिगम का अर्थ । सीखना जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक सार्वभौम क्रिया है जो हमारे ज्ञान में निरन्तर वृद्धि करती है। मनुष्य शैशवकाल से मृत्यु तक जाने-अनजाने, औपचारिक-अनौपचारिक साधनों से नयी-नयी बातें सीखने की प्रवृत्ति रखता है। सीखने की प्रक्रिया में मानव एवं पशु अपने पूर्व-अनुभवों से लाभ उठाते हैं। वस्तुत: पूर्व-अनुभवों से लाभ उठाने की क्रिया को ही हम सीखना कहते हैं।
दूसरे शब्दों में, अतीत से लाभ उठाना तथा अपनी प्रक्रियाओं को उपयुक्त बनाना ही सीखना (Learning) है। उदाहरण के लिए, आग से जला हुआ बच्चा दोबारा आग के पास नहीं जाता, क्योंकि अनुभव ने उसे सिखा दिया है कि आग उसे जला देगी; अतः वह सीख गया है कि आग से दूर रहना चाहिए। सीखने की क्रिया द्वारा मनुष्य के मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार में इतना परिवर्तन आ जाता है कि आगे चलकर मूल प्रवृत्तियों के असली रूप को पहचानना ही दूभर हो जाता है। इस प्रकार सीखने से हमारा तात्पर्य पर्यावरण के प्रति उपयुक्त प्रतिक्रिया को अपनाने की प्रक्रिया अर्जित करने से है। सीखने का एक नाम ‘अधिगम’ भी है।
सीखने की परिभाषा
अनेक विद्वानों ने सीखने की परिभाषाएँ दी हैं। प्रमुख विद्वानों की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
⦁ क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना आदतों, ज्ञान तथा अभिवृत्तियों को अर्जन है।”
⦁ गेट्स एवं अन्य के अनुसार, “अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, उसी को सीखना कहते हैं।”
⦁ वुडवर्थ के अनुसार, “सीखना वह कोई भी क्रिया है जो बाद की क्रिया पर अपेक्षाकृत स्थायी प्रभाव डालती है।”
⦁ चार्ल्स स्किनर के अनुसार, “सीखना, प्रगतिशील रूप से व्यवहार को ग्रहण करने की प्रक्रिया है।”
⦁ कॉलविन के अनुसार, “अनुभव द्वारा पहले से बने बनाये (अर्थात् मौलिक) व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।”
⦁ बर्नहर्ट के अनुसार, “सीखना व्यक्ति के कार्यों में एक स्थायी रूपान्तर लाना है जो निश्चित परिस्थितियों में किसी लक्ष्य को प्राप्त करने या किसी समस्या को सुलझाने के प्रयास में अभ्यास द्वारा किया जाता है।”
⦁ बी०एन० झा के शब्दों में, “उपयुक्त अनुक्रिया अर्जित करने की प्रक्रिया ही सीखना है।”
⦁ हिलगार्ड के अनुसार, “सीखना वह क्रिया है जिससे कि कोई क्रिया प्रारम्भ होती है अथवा जो किसी परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करने के कारण परिवर्तित होती है; शर्त यह है कि इस प्रकार के परिवर्तन की विशेषताओं की व्याख्या जन्मजात प्रतिक्रिया, प्रवृत्तियों, परिपक्वता अथवा प्राणी की अस्थायी अवस्थाओं द्वारा नहीं की जा सके।”
विभिन्न सम्प्रदायों की दृष्टि में सीखना
मानव स्वभाव के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से मनोविज्ञान के विभिन्न सम्प्रदायों का विकास हुआ। इन सम्प्रदायों ने भी अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार सीखने की प्रक्रिया को समझाया है।
व्यवहारवाद के अनुसार, “सीखना मानव-व्यवहार में परिवर्तन की एक प्रक्रिया है।” प्रयोज़ावाद की दृष्टि में, “सीखना मानव-जीवन के लक्ष्य (प्रयोजन) से सम्बन्धित है तथा यह लक्ष्योन्मुख उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।’ गैस्टाल्टवाद स्वीकार करता है, “मानव सम्पूर्ण परिस्थिति से सम्बन्ध स्थापित करके सीखता है। वह सीखे गये ज्ञान को अपने पूर्व-अनुभव से जोड़कर आत्मसात् करता है।
निष्कर्षतः सीखना या अधिगम मनुष्य द्वारा वातावरण से समायोजन स्थापित करने की, जीवन-पर्यन्त चलने वाली एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। सीखना वस्तुतः एक प्रकार का मानसिक विकास है जिससे मानव का ज्ञानवर्द्धन होता है तथा उसकी विविध मानसिक प्रक्रियाओं का विकास होता है। विश्व के सभी प्राणी थोड़ी या अधिक, किन्तु हरदम कुछ-न-कुछ सीखते ही रहते हैं।
सीखने की अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सहायक कारक
सीखने की सफलता कुछ विशेष परिस्थितियों अथवा कारकों पर निर्भर करती है जिन्हें हम सीखने की अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सहायक कारक कहते हैं। ये परिस्थितियाँ अथवा कारक निम्नलिखित हैं
(1) शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य- सीखने की तीव्रता व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य अच्छा न होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक काम नहीं कर पातीं, व्यक्ति रुचि लेकर कार्य नहीं करता और जल्दी ही थक जाता है। जो व्यक्ति देखने, सुनने, बोलने आदि क्रियाओं में निर्बल होते हैं, वे सीखने में पर्याप्त उन्नति नहीं कर पाते। वस्तुत: सीखने की प्रक्रिया का भौतिक और शारीरिक आधार स्नायु-संस्थान है। स्नायु-संस्थान के अन्तर्गत मस्तिष्क और स्नायु आते हैं जिनके कार्य करने की शक्ति पर सीखने की प्रक्रिया निर्भर करती है। मस्तिष्क और स्नायु की शक्ति, व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निर्भर है। स्पष्टतः सीखने की क्रिया शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य से सीधे रूप में प्रभावित होती है।
(2) आयु– आयु का सीखने से गहरा सम्बन्ध है। आयु बढ़ने से सीखने की योग्यता क्यों कम हो। जाती है, इस संम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि आयु वृद्धि के कारण कुछ परिवर्तन आते हैं; जैसे-नाड़ी-मण्डल में विकार आ जाता है, उत्साह फीका पड़ने लगता है, विविध कार्यों में व्यस्तता के कारण अरुचि हो जाती है तथा व्यक्ति पर्याप्त रूप से श्रम नहीं कर पाता। हालाँकि, आयु बढ़ने के साथ-साथ अनुभव बढ़ता है, किन्तु सीखने की योग्यता घटती जाती है। प्रौढ़ों की अपेक्षा बालक जल्दी सीखते हैं। इसका कारण यह है कि बालकों का मस्तिष्क संसार की समस्याओं के बोझ से मुक्त रहता है, उनका नाड़ी-मण्डल अधिक स्वस्थ एवं लचीला होता है और जिज्ञासावश वे अधिक रुचि लेते हैं। सच तो यह है कि सीखना एक प्रगतिशील क्रिया है जिसे जीवन की किसी भी अवस्था में शुरू किया जा सकता है। केवल रुचि, अवधान, निष्ठा एवं श्रम की आवश्यकता है।
(3) उपयुक्त वातावरण– उपयुक्त वातावरण सीखने की प्रक्रिया में सहायक होता है। यदि वातावरण शान्त, सुन्दर, स्वस्थ तथा खुला होगा तो उससे मन को एकाग्र करने में सहायता मिलेगी। शोर-शराबे से युक्त, दूषित, गर्म तथा घुटन-भरे वातावरण में बालक तत्परता से नहीं सीख पाएगा। वह जल्दी थकान अनुभव करेगा और आलस्य के कारण झपकी मारने लगेगा।
(4) प्रेरणा- सीखने में प्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सीखने में उन्नति लाने की दृष्टि से उसे प्रेरणायुक्त एवं प्रयोजनशील बना देना चाहिए। प्रेरणायुक्त व्यवहार उत्साह के कारण सीखने की प्रक्रिया को तीव्र कर देता है; अतः तीव्र प्रेरणा से सीखने की गति में तीव्रता आती है। प्रेरणा का सम्बन्ध लक्ष्य या प्रयोजन से है। यदि सीखने का लक्ष्य अच्छा है तो व्यक्ति उसे शीघ्र सीखने के लिए प्रेरित होता है। अतएव, सीखने की प्रक्रिया को त्वरित करने के लिए उसे उद्देश्यपूर्ण एवं प्रेरणायुक्त कर देना उचित है।
(5) रुचि- सीखने में रुचि का होना आवश्यक है। कोई कार्य सीखने या सिखाने से पहले व्यक्ति को उस कार्य में रुचि पैदा करनी चाहिए। रुचि लेकर किया गया कार्य शीघ्र होता है। रुचि एक प्रकार की आन्तरिक प्रेरणा है जो व्यक्ति को निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायता करती है तथा रुचि का सम्बन्ध इच्छाओं और उद्देश्यों से है। बालक की सीखने में रुचि तभी होगी जबकि सीखने की सामग्री उसके उद्देश्य एवं इच्छा से सम्बन्धित होगी। अतः बालक में सीखने के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए इन सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए।
(6) अवधान- अवधान सीखने की एक आवश्यक शर्त तथा अनुकूल दशा है। सीखने के दौरान, विविध साधनों के माध्यम से व्यक्ति के अवधान को विषय-सामग्री में केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए। शान्त भाव से विषय में केन्द्रित अवधान सीखने की प्रक्रिया को तीव्र करता है।
(7) तत्परता- सीखने-सिखाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पहले व्यक्ति में तत्परता का गुण होना आवश्यक है। सीखने की तीव्र इच्छा के साथ, सीखने के लिए तत्पर बच्चे शीघ्रतापूर्वक सीखते हैं। इसके विपरीत इच्छा एवं तत्परता के अभाव में सीखने की क्रिया न केवल अधिक समय लेती है बल्कि इस भाँति सीखा गया विषय स्थायी प्रकृति का भी नहीं होता।
(8) समय- किसी कार्य को लगातार लम्बे समय तक करने से थकान तथा ऊब पैदा होती है। थके हुए मस्तिष्क से सीखी गयी बातों का मस्तिष्क पर अच्छा असर नहीं पड़ता है। यही कारण है कि दीर्घ काल के अन्तिम भाग में सीखा गया ज्ञान समझ से बाहर होता जाता है। सीखने की क्रिया को सार्थक बनाने की दृष्टि से शिक्षार्थियों को थोड़ी-थोड़ी देर का अन्तर करके याद करना चाहिए। इससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावकारी व उपयोगी बनती है।
(9) सीखने की विधि– सीखने की विधि की उपयुक्तता सीखने की सहायक दशा है। सीखने की अच्छी एवं उपयुक्त विधि मनोवैज्ञानिक एवं अर्थपूर्ण ढंग की तार्किक विधि होती है। यह विधि, विषय-सामग्री और बालक की बुद्धि व सीखने के लिए उपलब्ध समय को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए।’
(10) करके सीखना– वर्तमान समय में सभी शिक्षा प्रणालियाँ ‘करके सीखना’ (Learning by doing) पर बल देती हैं। स्वयं करके सीखने से बालक का ध्यान सम्बन्धित कार्य में लम्बे समय तक केन्द्रित रहता है और वह द्रुत गति से सीखता है।
(11) सफलता का ज्ञान- सीखने वाले को सफलता का ज्ञान होने से प्रेरणा प्राप्त होती है। यदि सीखने वाले व्यक्ति को समय-समय पर यह अहसास कराया जाता रहे कि उसे कार्य में सफलता मिल रही है तो वह अधिक उत्साह के साथ करने लगता है। अतः सीखने की प्रक्रिया में सफलता का ज्ञान कराते रहना चाहिए।
(12) अभ्यास- सीखने में वांछित उन्नति के लिए विषय का निरन्तर अभ्यास जरूरी है। अभ्यास की अवधि न तो बहुत कम हो और न ही बहुत अधिक। मनोवैज्ञानिकों ने तीस मिनट की अभ्यास अवधि को सभी प्रकार से यथोचित बताया है। सीखी गयी बात को पुष्ट करने के लिए अभ्यास आवश्यक है। अतः पाइल (Pile) का यह कथन उचित ही है कि प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करना चाहिए।
(13) प्रतिस्पर्धा- सीखने वालों में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा की भावना जाग्रत होने पर वे और अधिक सीखने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा का विचार व्यक्ति को एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए प्रेरित करता है; अतः शिक्षक को शिक्षार्थियों में प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा का भाव पैदा करते। रहना चाहिए।
(14) पुरस्कार और प्रशंसा– पुरस्कृत व्यक्ति सीखने के लिए प्रेरित तथा उत्साहित होता है। समय-समय पर प्रशंसा या पुरस्कार का विचार सीखने में सहायक सिद्ध होता है। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बड़े लड़कों तथा मन्दबुद्धि बालकों पर प्रशंसा का अधिक प्रभाव पड़ता है, किन्तु लड़कियों पर लड़कों की अपेक्षा प्रशंसा या निन्दा का कम प्रभाव पड़ता है।
(15) दण्ड और निन्दा- यद्यपि दण्ड सीखने की क्रिया में बाधा उत्पन्न करते हैं तथापि बालकों को गलत कार्यों से रोकने के लिए दण्ड का प्रयोग करना ही पड़ता है। बालक के बुरे कार्यों की निन्दा की जानी चाहिए। तीव्र बुद्धि बालक पर निन्दा का अच्छा प्रभाव देखा गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि निन्दा, फल की अवहेलना से अधिक उत्साहवर्द्धक होती है।
उपर्युक्त अनुकूल दशाओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को । व्यवस्थित किया जाएगा तो निश्चय ही, सीखने की प्रक्रिया तीव्र, प्रभावकारी एवं स्थायी होगी।