दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति निम्नलिखित कारणों से ऋद्ध थे
1. दक्कन में एक ओर ऋण का स्रोत सूख गया, वहीं दूसरी ओर राजस्व की माँग बढ़ा दी गई। कंपनी उपज का लगभग 50 | प्रतिशत रैयत से ले लेती थी। रैयत उस हालत में नहीं थे कि इस बढ़ी माँग को पूरा कर सकें।
2. 1832 के बाद कृषि उत्पादों की कीमतों में तेज़ी से गिरावट आई और लगभग डेढ़ दशक तक इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। इसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में और भी गिरावट आई। इस दौरान 1832-34 के वर्षों में देहाती इलाके अकाल की चपेट में आकर बरबाद हो गए। दक्कन का एक-तिहाई पशुधन मौत के मुँह में चला गया और आधी मानव जनसंख्या भी काल का ग्रास बन गई। और जो बचे, उनके पास भी उस संकट का सामना करने के लिए खाद्यान्न नहीं था। राजस्व की बकाया राशियाँ आसमान को छुने लगीं। ऐसे समय किसान लोग ऋणदाता से पैसा उधार लेकर राजस्व चुकाने लगे। लेकिन यदि रैयत ने एक बार ऋण ले लिया तो उसे वापस करना उनके लिए कठिन हो गया। कर्ज बढ़ता गया, उधार की राशियाँ बकाया रहती गईं और ऋणदाताओं पर किसानों की निर्भरता बढ़ती गई।
3. महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार अब दीर्घावधिक ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे। क्योंकि उन्होंने यह देख लिया था कि भारतीय कपास की माँग घटती जा रही है और कपास की कीमतों में भी गिरावट आ रही है। इसलिए उन्होंने अपना कार्य-व्यवहार बंद करने, किसानों को अग्रिम राशियाँ प्रतिबंधित करने और बकाया ऋणों को वापिस माँगने का निर्णय लिया। एक ओर तो ऋण का स्रोत सूख गया, वहीं दूसरी ओर राजस्व की माँग बढ़ा दी गई। पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 और 1830 के दशकों में किया गया था। अब अगला बंदोबस्त करने का समय आ गया था और इस नए बंदोबस्त में माँग को, नाटकीय ढंग से 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया।
4. ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार किए जाने पर रैयत समुदाय को बहुत गुस्सा आया। वे इस बात के लिए ही क्रुद्ध नहीं थे कि वे ऋण के गर्त में गहरे-से-गहरे डूबे जा रहे थे अथवा वे अपने जीवने को बचाने के लिए ऋणदाता पर पूर्ण रूप से निर्भर थे, बल्कि वे इस बात से ज्यादा नाराज थे कि ऋणदाता वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनकी हालत पर कोई तरस नहीं खा रहा है। ऋणदाता लोग देहात के प्रथागत मानकों यानी रूढ़ि–रिवाजों का भी उल्लंघन कर रहे थे।