(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित ‘भारतीय संस्कृति’ नामक निध से उद्धृत है। अथवा निम्नवत् लिखेंपाठ का नाम-भारतीय संस्कृति। लेखक का नाम–डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि हमारे देश की संस्कृति में अनेक विविधताएँ तो हैं, पर ये सभी विविधताएँ बाहरी दृष्टि से देखने पर ही प्रतीत होती हैं। भीतर से देखने पर सबमें एक अनोखी एकता और समानता व्याप्त है। जिस प्रकार मोतियों और रंग-बिरंगे फूलों को एक रेशमी धागा एक साथ एक हार के रूप में जोड़े रखता है, उसी प्रकार हमारी संस्कृति भी अनेक धर्मों, जातियों, भाषाओं तथा दूसरी भिन्नताओं को एक साथ जोड़े रखती है। एकता के इस धरातल पर हम सब केवल भारतीय रह जाते हैं।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि इस हार की प्रत्येक मणि या पुष्प अन्य मणि या पुष्पों से न तो भिन्न है और न ही हो सकती है। ये हार या पुष्प.अपनी सुन्दरता से ही । दूसरों को नहीं लुभाते, वरन् दूसरों की सुन्दरता से खुद सुशोभित भी होते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार माला के फूल अपने सौन्दर्य से दूसरों को मोहित ही नहीं करते अपितु दूसरों के गले में डाले जाने पर उनको सुशोभित भी करते हैं, इसी प्रकार हमारे देश की धार्मिक, भाषायी और जातिगत विभिन्नता स्वयं तो सुशोभित होती ही है, हमारे देश को भी सुशोभित करती है।
(स)
⦁ प्रस्तुत गद्यांश में मणि या फूल की विशेषता के रूप में कहा गया है कि ये केवल अपनी सुन्दरता से ही लोगों को मोहित नहीं करते वरन् दूसरों की सुन्दरता से स्वयं भी सुशोभित होते हैं।
विभिन्नताओं की तह में फैली एकता उस रेशमी धागे के समान है जो विभिन्न प्रकार की मणिमुक्ताओं और फूलों को अपने में गूंथकर एक होर बना देता है।
⦁ भारत और भारतीय संस्कृति के विषय में कहा जा सकता है-“हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, ईसाई आदि सभी इसी देश में रहने वाले हैं। उनके मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु भारतरूपी जो बड़ा मन्दिर है, वह सबका है। सब मजहबों के लोग एक ही ईश्वर की इबादत करते हैं।” कविवर द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने भी ऐसे ही भाव व्यक्त किये हैं-‘हम सब सुमन एक उपवन के।’