जयशंकर प्रसाद
( स्मरणीय तथ्य )
जन्म- सन् 1890 ई०, काशी। मृत्यु- सन् 1937 ई० । पिता- बाबू देवीप्रसाद ।
रचनाएँ- ‘झरना’, ‘लहर’, ‘आँसू’, ‘कामायनी’, ‘प्रेम पथिक’ आदि।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्य-विषय- छायावाद, रहस्यवाद, ईश्वरोन्मुख लौकिक प्रेम, प्रकृति-प्रेम तथा भारतीय संस्कृति से प्रेम। रस-प्राय: सभी।
भाषा- आरम्भ में ब्रजभाषा, बाद में खड़ीबोली, संस्कृत शब्दों की प्रचुरता, मुहावरों का अभाव ।
शैली- 1. कथात्मक, 2, दुरूह तथा गहन और 3. भावात्मक।
अलंकार- सभी प्राचीन, नवीन (मानवीकरण आदि) अलंकार।
छन्द- हिन्दी के प्राचीन छन्द।
जीवन-परिचय- बाबू जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन् 1890 ई० में हुआ था। इनके पिता बाबू देवीप्रसाद ‘सुँघनी साहू’ के नाम से प्रसिद्ध एक धनी व्यवसायी थे। बचपन में ही पिता की मृत्यु के बाद इनकी शिक्षा का प्रवन्ध घर पर ही हुआ। यहाँ इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी का गम्भीर अध्ययन किया और अपने व्यापार की देखभाल के साथ हिन्दी की सेवा में भी लगे रहे। प्रसाद जी स्वभाव से बड़े उदार, मृदुभाषी, स्पष्ट वक्ता, साहसी और हँसमुख प्रकृति के व्यक्ति थे। इनकी मनोवृत्ति धार्मिक थी। ये भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक और शिव के परम भक्त थे। इनकी मृत्यु सन् 1937 ई० में क्षय रोग के कारण हो गयी।
रचनाएँ- प्रसाद जी ने साहित्य के विविध क्षेत्रों में अपना स्वतन्त्र मार्ग बनाया। इन्होंने काव्य, नाटक, उपन्यास और निबन्ध सभी विषयों को स्पर्श किया है।
काव्य- चित्राधार, कानन कुसुम, करुणालय, प्रेम पथिक, झरना, आँसू, लहर और कामायनी ।
काव्यगत विशेषताएँ
(क) भाव-पक्ष-आधुनिक काल के छायावादी ऐवं रहस्यवादी कवियों में प्रसाद जी का सर्वोच्च स्थान है।‘आँसू’ इनका प्रथमं छायावादी कार्ये हैं कॉमर्यंन इन ऑन्तैम और र्सर्वं श्रेष्ठ रचना है। पौराणिक कथा पर आधारित इस काव्य में इन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा को चरम सीमा तक पैहुँचा दिया है। ये भारतीय संस्कृति के सच्चे पुजारी थे, जिसका प्रभाव इनकी रचनाओं पर पड़ा है।प्रसादजी मूल रूप से कल्पना और भावना के कवि थे। भावना के क्षेत्र में इन्होंने प्रेम और सौन्दर्य को स्थान दिया है। इनकी यह प्रेम-भावना मुख्यत: तीन रूपों में दिखायी देती है—
- ईश्वरोन्मुख लौकिक प्रेम,
- भारतीय संस्कृति से प्रेम,
- प्रकृति प्रेम।
(ख) कला-पक्ष-भाषा- प्रसादजी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है। वह सरल और क्लिष्ट दो रूपों में दिखायी देती है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में व्यावहारिक भाषा का प्रयोग हुआ है, किन्तु पद की रचनाएँ संस्कृत प्रधान हो गयो हैं । अत: कहीं-कहीं क्लिष्टता आ गयी है। इनका वाक्य-विन्यास और शब्द-चयन अति सुन्दर और अद्वितीय है। इनकी रचनाओं में एक-एक वाक्य नेगीने की भाँति जड़ा होता है। इनकी भाषा लाक्षणिकता और चित्रात्मकता अधिक है, किन्तु मुहावरों का सर्वथा अभाव है। संच तो यह है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रसाद जैसी सशक्त भाषा किसी साहित्यकार की नहीं है।
- शैली– प्रसाद जी की शैली ठोस, स्पष्ट, परिष्कृत और स्वाभाविक है। छोटे-छोटे वाक्यों में गम्भीर भाव भर देना और उसमें संगीत का विधान कर देना इन शैली की विशेषता है। इनकी रचनाओं में इनका व्यक्तित्व झाँकता रहता है। इन्होंने अपने दार्शनिक विचारों को गम्भीर शैलीं मैंव्यक्त किया है तथा लज्जा, चिन्ता औदिं मानसिक भवों के चित्रण में इन्होंने भावात्मक शैली को अपनाया है।
- रस- रस की दृष्टि से प्रसाद जी मुख्यतः श्रृंगार रस के कवि हैं, किन्तु कॅरुणवीर, वात्सल्य आदि के भी सुन्दर उदाहरण इनकी रचनाओं में मिलते हैं।
- अलंकार- प्रसाद जी ने अलंकारों का सुन्दर स्वाभाविकै प्रयोग किया है। उनमें रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा, श्लेष, विरोधाभास आदि मुख्य हैं। एक उदाहरण देखिए-
- रूपक-
काली आँखों में कितनी, यौवन के मद की लाली।
मानसिक मदिरा से भर दी, कितने नीलम की प्याली।।
- छन्द- आधुनिक छन्दों के अतिरिक्त प्रसादजी ने कवित्त, रोली, रूपमाला आदि छन्दों को अपनाया है। संस्कृत छन्दों के साथ इन्होंने सुन्दर गीत भी लिखे हैं। वस्तुत: प्रसादजी का कवि-रूप बड़ा ओजस्वी था। ये छायावादी युग के प्रथम प्रवर्तक थे। आधुनिक युग के कवियों में उनका स्थान सर्वोच्च है। इनकी रचनाओं के कारण हिन्दी साहित्य गौरवान्वित हुआ है।