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व्यापार (Trade) का अर्थ, परिभाषाएँ एवं लक्षण समझाइए ।

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व्यापार का अर्थ : Meaning of Trade : मनुष्य जब जंगली अवस्था में था तब वह अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ सीमित होने से वह अपनी आवश्यकताओं को स्वयं संतुष्ट कर सकता था । उस समय विनिमय या व्यापार का कोई अस्तित्व नहीं था । कृषि की खोज के कारण श्रम-विभाजन संभव हुआ, तथा मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ संतुष्ट करने के लिए एक-दूसरे पर आश्रित बना । जिससे विनिमय का उद्भव हुआ । प्रारम्भ के समय में वस्तु तथा सेवा के बदले में वस्तु एवं सेवा का विनिमय होता था । लेकिन मुद्रा की खोज होने से वस्तु तथा सेवा के बदले मुद्रा का विनिमय होने लगा है ।

व्यापार का अर्थ होता है, लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से चीज़-वस्तुओं का क्रय एवं विक्रय ।

व्यापार में दो पक्षकार होते हैं :

(1) वस्तु या सेवा देनेवाला (विक्रेता)
(2) वस्तु या सेवा प्राप्त करनेवाला (क्रेता) ।

व्यापार की परिभाषाएँ (Definitions of Trade) :

  1. प्रो. सावकार के अनुसार : “व्यापार अर्थात् वस्तु के बदले में वस्तु या सेवा की अथवा धन के बदले में वस्तु या सेवा का लेनदेन अथवा विनिमय ।”
  2. कोन्स्टन्सई एम विल्ड के अनुसार : “व्यापार अथवा लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से माल का क्रय-विक्रय ।”
  3. श्री ल्युइस हेन्री के अनुसार : “व्यापार अर्थात् ऐसी मानवीय प्रवृत्ति जिसमें वस्तु के क्रय-विक्रय की प्रवृत्ति द्वारा धन-प्राप्ति का उद्देश्य सार्थक किया जाता है ।”

व्यापार के लक्षण : व्यापार के लक्षण निम्नलिखित हैं :

1. विनिमय : व्यापार में विनिमय आवश्यक है । इसमें वस्तु एवं सेवा के बदले में वस्तु या सेवा अथवा वस्तु एवं सेवा के बदले में मुद्रा का विनिमय होता है । जैसे किसान द्वारा अनाज के बदले में जूते प्राप्त करना । दरजी कपड़ा सिलने के बदले में कुंभार से मिट्टी के बर्तन प्राप्त करे, मुद्रा के बदले में फ्रीज खरीदना इत्यादि ।

2. मालिकी परिवर्तन : व्यापार से वस्तु या सेवा की मालिकी (स्वामित्व – ownership) में परिवर्तन होता हैं । वस्तु का विक्रय होने से बेचनेवाले से वस्तु की मालिकी का अधिकार खरीदनेवाला प्राप्त करता है ।

3. दो पक्षकार : व्यापार में दो पक्षकारों का होना अनिवार्य होता है । दो पक्षकार नहीं तो व्यापार संभव नहीं बन सकता । कभी कोई एक व्यक्ति अकेला व्यापार नहीं कर सकता । इसलिए व्यापार में क्रेता एवं विक्रेता दो पक्षकार होने अनिवार्य हैं ।

4. आर्थिक प्रवृत्ति : व्यापार भी एक आर्थिक प्रवृत्ति है । आर्थिक प्रवृत्ति में जैसे मुआवजा प्राप्त किया जाता है, ठीक इसी तरह व्यापार में मुआवजे के रूप में लाभ प्राप्त किया जाता है ।

5. विकल्प : व्यापार के अन्तर्गत विकल्प होते हैं । व्यापार में वस्तु के विकल्प में वस्तु या सेवा ली जा सकती है तथा वस्तु या सेवा के विकल्प में मुद्रा ली जाती है ।

6. सातत्य : व्यापार की प्रवृत्ति में सातत्य होना अनिवार्य है । केवल एक या दो बार क्रय या विक्रय होने से व्यापार नहीं कहलाता । अर्थात् क्रय-विक्रय सतत होना चाहिए ।

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