सन्दर्भ- प्रस्तुत गीत छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की कालजयी नाट्य-कृति ‘चन्द्रगुप्त’ से लेकर हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘अन्तरा भाग 2’ में संकलित किया गया है।
प्रसंग- ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक के दूसरे अंक में ग्रीक सेनापति सेल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया सिन्धु नदी के किनारे ग्रीक-शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठकर यह गीत गाती है। इसमें भारतभूमि की महिमा, गौरव और प्राकृतिक सुषमा का मनोहारी चित्रंण है। भारत से प्रभावित कार्नेलिया उसे अपना देश मानती है।
व्याख्या- प्रभातकालीन अरुणिमा से युक्त हमारा यह भारत देश मधुरिम और मनोहारी है। सूर्य की सुनहली किरणों के कारण इसकी प्राकृतिक सुषमा बढ़ जाती है, मधुमय हो जाती है। विश्व के कोने-कोने से ज्ञान-पिपासु यहाँ आकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह देश जिज्ञासुओं को सहारा देता है।
उन्हें यहाँ अवलम्ब का सहज आभास होता है। कार्नेलिया भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रभावित होकर भावविभोर हो गीत के माध्यम से अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहती है कि इस देश में प्रात:कालीन सूर्य वृक्षों की फुनगियों की हरियाली पर अपनी लालिमा बिखेरता है।
वृक्षों की शाखाओं से छनकर जब सूर्य की किरणें कमलों पर अपनी कान्ति बिखेरती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो वे पुष्पों पर नृत्य कर रही हों और जीवन की हरियाली पर मांगलिक कुंकुम बिखर गया हो।
केवल मनुष्य ही नहीं पक्षी भी इस देश से प्रेम करते हैं। इसलिए दूर-दूर के विभिन्न पक्षी ‘अपने इन्द्रधनुषी पंखों को पसार कर सुगंधित वायु के सहारे इस देश की ओर ही आते हैं मानो यह देश ही उनका नीड़ (घोंसला) हो। भाव यह है कि विभिन्न देशों की सभ्यता-संस्कृति, भाषा, वेश-भूषा, आचारविचार वाले व्यक्ति यहाँ आते हैं और आश्रय पाते हैं।
कार्नेलिया भारत के लोगों की विशेषता बताती हुई गीत के माध्यम से कहती है कि यहाँ के निवासी करुणा और सहानुभूति वाले हैं। वे अपने दुःख से ही दुखी नहीं होते अपितु जीव मात्र के दुःख से उनकी आँखें आर्द्र हो जाती हैं। उनकी आँखों से निकले करुणा के आँसू ही मानो वाष्प (भाप) बनकर बादल बन जाते हैं और फिर बरस जाते हैं। यह वह देश है जहाँ सागर से आने वाली लहरें किनारा पाकर शान्त हो जाती हैं अर्थात् दूर देशों से आने वाले व्याकुल प्राणी यहाँ शान्ति का अनुभव करते हैं। यह देश दुखियों को शान्ति प्रदान करने वाला है।
प्रसाद जी कार्नेलिया के माध्यम से प्रभातकालीन प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यहाँ की प्रात:कालीन प्रकृति अवर्णनीय है। जब रातभर चमकने वाले तारे मस्ती में ऊँघने लगते हैं तब उषा रूपी सुन्दरी अपने सूर्य रूपी सुनहरे घड़े को आकाशरूपी कुँए में डुबोकर जल लाती है और सुख बिखेरती जाती है। भाव यह है कि जब सूर्योदय होता है तो तारे छिपने लगते हैं और चारों ओर सुखद अनुभूति होने लगती है।