(1) युवावस्था:
यह अवस्था 21 से 40 वर्ष तक चलने वाली अवस्था है। इसे पूर्व प्रौढ़ावस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में व्यवसाय, वैवाहिक क्षेत्रों में समयोजन करना पड़ता है। इस अवस्था के समय युवा विशिष्ट जीवन लक्ष्यों को निश्चित रूप से चुनाव कर लेता है और अपनी शक्तियों को अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में लगाता है। युवावस्था जीवन का वह पड़ाव है जब किशोर अपनी पढ़ाई पूरी कर लेते हैं या करने वाले होते हैं। युवावस्था में सुखी होना अधिकांशत: संतोषजनक व्यावसायिक समायोजन पर निर्भर करता है।
यदि वह व्यवसाय से खुश नहीं होता तो अपने घरेलु जीवन में सामाजिक जीवन में और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अप्रसन्न ही रहता है। युवावस्था ही वह समय है जब जीवन की स्थिरता के लिये वह उपयुक्त जीवन साथी का चुनाव करता है। युवावस्था शारीरिक परिवर्तनों की अवस्था है। आर्थिक उत्पादन की इस अवस्था के फलस्वरूप राष्ट्र की उत्पादन क्षमता एवं सुख समृद्धि सुनिश्चित होती है।
(2) प्रौढावस्था:
प्रौढ़ावस्था को मध्यवय अवस्था भी कहते हैं। यह अवस्था 40 वर्ष से 60 वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था के आरम्भ और अन्त में शारीरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था में जनन क्षमता, शारीरिक शक्ति तथा स्फूर्ति कम हो जाती है। यह अवस्था आर्थिक व सामाजिक उन्नति की चरमोत्कर्ष अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी सफलताओं में स्थिर हो जाता है। अब व्यक्ति संवेगात्मक रूप से स्थिर, शान्त, सौम्य एवं अनुभवी हो जाता है। शारीरिक परिवर्तनों के रूप में व्यक्ति का शरीर – भार बढ़ जाता है। बालों व त्वचा में परिवर्तन हो जाते हैं, बाल सफेद हो जाते हैं। त्वचा आँखों के नीचे झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, नेत्र ज्योति की तीक्ष्णता घट जाती है। यह अवस्था काम क्षीणता तथा रजोनिवृत्ति का काल होता है।