स्वास्थ्य के अच्छा व सही होने की स्थिति में अधिकतर वृद्ध शारीरिक सामर्थ्य रहने तक काम करना और रोजगार में बने रहना चाहता है। कुछ वृद्धों के लिये काम आत्मसम्मान और योग्यता की भावना का आधार होता है, जबकि कुछ इसे प्रतिष्ठा का साधन मानते हैं तो कुछ वृद्ध काम के द्वारा साहचर्य का आनन्द लेना चाहते हैं तो कुछ के लिये काम एक जीविकोपार्जन का एक तरीका मात्र होता है। उम्र के बढ़ने के साथ – साथ व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता घटती चली जाती है।
उसका घटता हुआ बल व शक्ति उसकी इच्छाशक्ति कमजोर कर देती है। समाज अब उसे कार्य करने के अवसर प्रदान करने में कतराने लगता है। सेवानिवृत्ति इसी व्यवस्था का परिणाम है जो कि लगभग 60 वर्ष की आयु में दी जाती है। सेवानिवृत्ति के बाद वृद्धों को मिलने वाली मासिक आय में काफी मात्रा में कटौती हो जाती है व कई स्थानों में तो उन्हें पेंशन तक भी नहीं मिल पाती है।
सेवानिवृत्ति पर मिला संचित धन भी कई बार बच्चों की शिक्षा व देखभाल में खर्च हो जाता है, ऐसे में अब उन्हें अपनी मूलभूत आवश्यकताओं; जैसे-फल, भोजन, अण्डा आदि के लिये भी अपने बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसी प्रकार व्यवसाय में जमे वृद्ध पुरुषों का कार्यभार भी धीरे-धीरे उनके युवा बच्चों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। इससे वृद्ध आर्थिक तंगी के शिकार हो जाते हैं और उनके समक्ष अनेक आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
साथ – ही – साथ उम्र के प्रभाव से वे रोगों से ग्रसित भी होते रहते हैं। इन बीमारियों के उपचार हेतु अधिक धन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार एक ओर तो वृद्धावस्था में आय का साधन समाप्त हो जाता है तो दूसरी ओर उनके चिकित्सा सम्बन्धी खर्चे बढ़ जाते हैं। इस कारण से वृद्धों को आर्थिक परेशानी उठानी पड़ती है।
आर्थिक समस्याएँ उस समय और अधिक जटिल हो जाती हैं जबकि उनके बच्चे व्यवसाय प्राप्त करने में असफल रह जाते हैं अथवा उन्हें किसी पुत्री का विवाह करना होता है। कार्य-मुक्त होने के पश्चात जीवन के शेष वर्षों के लिये पर्याप्त धन का प्रबन्ध नहीं होने पर उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगता है। जो कभी पूरे परिवार का पालन-पोषण करता था उसे अब एक आश्रित व्यक्ति की तरह जीवनयापन करना पड़ता है। आर्थिक समस्याओं के बढ़ने के कारण उनमें भय, व्याकुलता, निराशा और उत्पीड़न की भावनाएँ अधिक पायी जाती हैं।
हमारी प्राचीन संस्कृति में बूढ़े माँ-बाप की पूरी जिम्मेदारी बेटे – बहू बड़ी कुशलता व मनोयोग से उठाते थे लेकिन समय व परिस्थितियों में परिवर्तन आने के कारण वृद्धों को परिवार के सदस्य अब बोझ समझने लगे हैं एवं देखभाल के लिये उनके पास समय नहीं होता है। अब अनेक वृद्ध लोग वृद्धावस्था में अपने परिवार के साथ रहना पसन्द नहीं करते हैं। वृद्धावस्था में सुखी होने का तात्पर्य स्वस्थ होना, आर्थिक रूप से सुरक्षित होना, समाज द्वारा अपनाया जाना, अकेला न होना, धर्मनिष्ठा तथा संतुष्ट होना होता है।