(1) तिभागा आन्दोलन: यह आन्दोलन 1946 - 47 में हुआ था। यह संघर्ष बंगाल और उत्तरी बिहार की पट्टेदारी खेती का था। प्रान्तीय किसान सभा ने फ्लाउड कमीशन की सिफारिशों के अनुसार, तिभागा लागू कराने के लिए जन आन्दोलन का आह्वान किया। तिभागा से आशय है - बटाईदार के लिए उपज का दो तिहाई भाग, न कि आधा। कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने गाँवों में पहुँचकर बटाईदारों को संगठित किया। नवम्बर 1946 से इस आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु उत्तरी बंगाल बन गया, लेकिन अब इसका दमन भी बढ़ गया। यह आन्दोलन आगे चलकर किसानों के आन्तरिक तनावों के कारण समाप्त हो गया।
(2) तेलंगाना संघर्ष: यह किसान आन्दोलन 1946-51 में हुआ था। यह देशी राज्य हैदराबाद की सामन्ती दशाओं के विरुद्ध था। यह आन्दोलन अपने उभार में 16,000 वर्गमील, 3000 गाँवों और 30 लाख की आबादी में फैल गया था। इस क्षेत्र में सामन्ती शोषण चरम सीमा पर था और राजनीतिक लोकतांत्रिक अधिकारों का भयंकर दमन होता था। देशमुख या जागीरदास जैसे सामन्तवादी उत्पीड़क आदिवासी किसानों से वेट्टी (जबरन बेगार या पैसा लेने की प्रथा) वसूलते थे। 1946 में देशमुख के गुण्डों ने एक ग्रामीण कार्यकर्ता कुमारयमा की हत्या कर दी। इस घटना के बाद किसानों ने संगठित होकर आन्दोलन किया जिसे तेलंगाना आन्दोलन कहा जाता है।
(3) बिरसा मुंडा द्वारा चलाया गया उलगुलान: बिरसा मुंडा नामक आदिवासी नेता ने स्वतंत्र मुण्डा राज्य की स्थापना के लिए सामाजिक आन्दोलन चलाया था।
(4) झारखण्ड को पृथक् राज्य का दर्जा दिलवाने हेतु आन्दोलन: झारखण्ड को पृथक् राज्य का दर्जा दिलवाने की शुरुआत बिरसा मुंडा नाम के एक आदिवासी नेता ने की थी। इनकी मृत्यु के पश्चात् एक मध्यवर्गीय आदिवासी बुद्धिजीवी ने इसका नेतृत्व किया। अन्ततः सन् 2000 में दक्षिण बिहार से काटकर झारखण्ड राज्य का निर्माण हो गया।
(5) दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलवाने का आन्दोलन: मैदानी इलाके में चमारों के सतनामी आन्दोलन, पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन, महाराष्ट्र के महार आन्दोलन दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलवाने हेतु किये गये आन्दोलन थे।