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विजयनगर साम्राज्य की सांस्कृतिक प्रगति एवं साहित्य के विकास पर प्रकाश डालिए।

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विजयनगर साम्राज्य की सांस्कृतिक प्रगति एवं साहित्य के विकास को निम्नलिखित विवरणों के आधार पर समझा जा सकता है

1. सांस्कृतिक प्रगति:

विजयनगर साम्राज्य में मध्यकालीन दक्षिण भारत के इतिहास में विजयनगर साम्राज्य के सांस्कृतिक योगदान का विशेष महत्व है। दो शताब्दियों से कुछ अधिक समय तक विजयनगर का राज्य दक्षिण की राजनीति में अपना प्रभाव बनाए रखने में सफल रहा। इस राज्य के शासकों ने सांस्कृतिक जीवन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। हिन्दू शासकों की सत्ता के अधीन होने के कारण यह राज्य हिन्दू धर्म और संस्कृति का केन्द्र रहा।

विजयनगर के शासकों ने विशेषकर हिन्दू धर्म और संस्कृति को प्रोत्साहन दिया। मध्यकाल में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का श्रेय विजयनगर के शासकों को दिया जाता है। विजयनगर के शासकों ने साहित्य, स्थापत्यकला, चित्रकला और संगीत आदि को प्रोत्साहन दिया। विजयनगर साम्राज्य को सांस्कृतिक गतिविधियों का उत्कृष्ट केन्द्र बना दिया। इसकी पुष्टि तत्कालीन साहित्यिक रचनाओं, अभिलेखों और विदेशी यात्रियों के वृत्तान्त से होती है।

2. साहित्य का विकास:

विजय नगर साम्राज्य में विजयनगर की साहित्यिक कृतियों में धार्मिक, ऐतिहासिक, जीवन वृत्तान्त एवं काव्य सम्बन्धी रचनाएँ उपलब्ध हैं। विजयनगर के प्रारम्भिक शासकों में बुक्का प्रथम ने अनेक धार्मिक रचनाओं के लेखन में योगदान दिया। सायण के नेतृत्व में विद्वानों के एक मण्डल ने चारों वेदों की संहिताओं सहित अनेक ब्राह्मण ग्रंथों और आरण्यकों पर भाष्य लिखे। कृष्णदेव राय के संरक्षण में ईश्वर दीक्षित ने हेमकूट नामक महाकाव्य पर दो टीकाएँ लिख । अगस्त्य ने अनेक काव्यों की रचना की, जिनमें कुछ रचनाओं पर कृष्णदेव के मंत्री सोलुआ तिम्मर ने टीका लिखी। विजयनगर का महानतम् शासक कृष्णदेव राय, एक उत्कृष्ट कोटि का कवि और लेखक था, जिसे संस्कृत एवं तेलुगु भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त थी।

उसकी तेलुगू रचना ‘आमुक्त मालयदम्’ थी, जो तेलुगू भाषा में पाँच महाकाव्यों में से एक है। कृष्णदेव राय ने संस्कृत में एक नाटक जाम्बवती कल्याणम् की रचना की। कृष्णदेव राय के दरबार में तेलुगू साहित्य के 8 सर्वश्रेष्ठ कवि रहते थे। साथ ही उनके दरबार में अनेक कवियों को प्रश्रय मिला, जिसमें सबसे प्रसिद्ध नाम अलसानी पेद्दन है, उन्हें तेलुगू कविता के पितामह के नाम से जाना जाता है। उसकी प्रमुख रचना ‘स्वारोचितसम्भव’ है। दूसरा कवि नन्दी तिम्मन था, जिसने ‘परिजात हरण’ की रचना की। तीसरे कवि भट्टमूर्ति ने अलंकार शास्त्र से सम्बन्धित पुस्तक ‘नर सभूयालियम’ की रचना की। एक अन्य कवि हरिदास था, जो वैष्णव भक्ति के विचार से प्रभावित था। कृष्णदेव राय के दरबार में तेनालीराम एक प्रसिद्ध कवि था, ने पाण्डुरंग महात्म्य की रचना की। जिसकी तुलना अकबर के प्रसिद्ध दरबारी बीरबल से की जाती है।

साहित्यिक रचनाओं में राजनाथ का ‘सालूवाभियुदय’ और भागवत – चम्पू विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका ऐतिहासिक महत्व भी है। शासकों की जीवनी से सम्बन्धित रचनाओं में बुक्का प्रथम के पुत्र कुमार कम्पन की सफलताओं पर आधारित, उसकी पत्नी की काव्य रचना ‘मदुरा विजयम्’ है। एक दूसरी रचना तिरूवलाम्बा की वरदाम्बिकापरिणय है, जिसमें अच्युत राय और वरदाम्बिका के विवाह का वर्णन है। इन रचनाओं के अतिरिक्त दर्शन, यज्ञतंत्र आदि से सम्बन्धित अनेक रचनाएँ भी इस काल में लिखी गई।

संस्कृत और तेलुगू भाषाओं को यद्यपि विजयनगर के शासकों ने प्राथमिकता दी, फिर भी अन्य भाषाओं के कवियों को इन्होंने प्रश्रय दिया। तमिल भाषा पहले ही विकसित अवस्था में थी और विजयनगर काल में इसकी प्रगति में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ। कन्नड़ भाषा में भी अनेक तीर्थंकरों और सन्तों की जीवनियाँ इस काल में लिखी गई। मधुर ने ‘धर्मनाथ पुराण’ की रचना की तथा गोमतेश्वर की स्तुति में कविताओं की रचना की। कृष्णदेव राय के दरबार में संस्कृत एवं कन्नड़ भाषाओं में विभिन्न पुस्तकों की रचना हुई, जिनमें ‘भाव चिंतारण’ तथा ‘वीर शैवामृत’ प्रमुख हैं। कृष्णदेव राय और अच्युत राय ने वैष्णवों, लिंगायतों तथा जैनों को भी संरक्षण दिया।

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