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दुर्गादास राठौर के जीवन – चरित्र व उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

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1. जीवन चरित्र:

दुर्गादास का जन्म 1638 ई. में सालवा गाँव में हुआ था। वे जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह की सेवा में रहने वाले आसकरण की तीसरी पत्नी के सन्तान थे। आसकरण को मारवाड़ में सालवा की जागीर मिली हुई थी और कालान्तर में ‘मुहणौत नैणसी’ के बाद उसे मारवाड़ का प्रधानमन्त्री भी नियुक्त किया गया था। अपनी पत्नी से प्रेम न रहने के कारण उसने पत्नी, पुत्र दोनों को अलग कर दिया। बालक दुर्गादास अपनी माता के साथ लूणावे गाँव में रहकर खेती-बाड़ी द्वारा गुजारा चलाने लगा। 1655 ई. में आपसी कहा-सुनी के बाद उसने अपने खेत से होकर सांडनियाँ (मादा ऊँट) ले जाने पर राजकीय चरवाहे को मार डाला। खबर मिलने पर महाराजा ने आसकरण से सफाई माँगी।

आसकरण ने कहा कि उसके सब बेटे राज्य की सेवा में है और गाँव में कोई बेटा नहीं है। तब महाराजा ने दुर्गादास को बुलाकर सारी बात पूछी। दुर्गादास ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा कि उक्त चरवाहे की लापरवाही के कारण न केवल किसानों की फसल नष्ट हो रही थी अपितु उसने आपके दुर्ग को भी अपशब्दों के साथ ‘बिना छज्जे का धोका ढूंढ़ा’ (बिना छत का सफेद खण्डहर) कहा। इस कारण मैंने उसकी हत्या कर दी। पूरी जानकारी प्राप्त कर महाराजा ने आसकरण से जब यह पूछा कि ‘तुम तो कहते थे कि गाँव में मेरा कोई बेटा नहीं है’

तो आसकरण ने कहा कि कपूत को बेटों में नहीं गिनते। महाराजा जसवन्त सिंह बोले, “यह आपका भ्रम है। यही कभी डगमगाते हुए मारवाड़ को कंधा देगा” और इसके बाद दुर्गादास को अपनी सेवा में रख लिया। 1667 ई. में दुर्गादास को बारह हजार रुपये की वार्षिक आय वाले पाँच गाँव-झांवर, समदड़ी, जगीसा, कोठड़ी, आम्बा-रो-बाड़ो और अमरसर प्रदान किए गए। कालान्तर में जसवन्त सिंह द्वारा मारवाड़ के रायमल बालो, जवणदेसर और बांभसेण गाँवों के साथ रोहतक परगने का लुणोद गाँवं भी दुर्गादास को जागीर के रूप में दिया गया।

2. जोधपुर पर शाही नियन्त्रण स्थापित होना:

महाराज जसवन्त सिंह और मुगल बादशाह औरंगजेब के बीच प्रायः विरोध की स्थिति बनी रही। इस कारण औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को मारवाड़ से बहुत दूर जमरुद (अफगानिस्तान) के थाने पर नियुक्त कर दिया। 1678 ई. में जमरुद्ध में जसवन्त सिंह की मृत्यु की खबर सुनते ही औरंगजेब के मुँह से निकल पड़ा- “दरवाजा-ए-कुफ्र शिकस्त” (आज मजहब विरोध का दरवाजा टूट गया)।

पर जब महल में बेगम ने यह हाल सुनी तो कहा- “आज शोक का दिन है कि बादशाह का ऐसा स्तम्भ टूट गया।” जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जोधपुर को खालसा घोषित कर ताहिर खाँ को फौजदार, खिदमत गुजार खाँ को किलेदार, शेर अनवर को अमीन और अब्दुर्रहीम को कोतवाल बनाकर प्रबन्ध के लिए नियुक्त कर दिया।

मारवाड़ पर पूरी तरह नियन्त्रण स्थापित हो जाने के बाद खानजहाँ बहादुर मन्दिरों के तोड़ने से एकत्रित हुई मूर्तियों को गाड़ियों मे भरवाकर अप्रैल, 1679 ई. में दिल्ली पहुँच गया। बादशाह ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और मूर्तियाँ दरबार के जलूखाने (आंगन) तथा जुमा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे डाली जाने की आज्ञा दी ताकि ये लोगों के पैरों के नीचे कुचली जा सकें।

26 मई, 1679 ई. को औरंगजेब ने इन्द्रासिंह (जसवन्त सिंह के बड़े भाई अमर सिंह का पौत्र) को जोधपुर को राज्य, राजा का खिताब, खिलअत, जड़ाऊ साज की तलवार, सोने के साज सहित घोड़ा, हाथी झण्डा और नक्कारा दिया। उसने भी बादशाह को छत्तीस लाख रुपये की पेशकशी देना स्वीकार कर लिया। इन्द्रसिंह न तो जोधपुर का प्रबन्ध कर पाया और न वहाँ होने वाले उपद्रवों को शान्त कर पाया जिसके कारण बादशाह ने लगभग दो माह बाद ही उसे वापस बुला लिया।

3. अजीत सिंह की सुरक्षा:

जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद राठौड़ सरदार उनकी दोनों गर्भवती रानियों को लेकर जमरुद से रवाना हुए किन्तु शाही परवाना न होने के कारण अटक नदी पर अफसरों ने उन्हें रोक लिया। इन अफसरों से लड़ाई कर राठौड़ दल ने अटक नदी पार किया। वहीं दोनों रानियों ने 19 फरवरी, 1679 ई. को आधे घण्टे के अन्तराल पर क्रमशः अजीत सिंह और दलथंभन नामक पुत्रों को जन्म दिया। जोधपुर की ख्यात के अनुसार इन कुंवरों के जन्म का समाचार मिलने पर बादशाह ने व्यंग्य से मुस्कराते हुए कहा कि, “बन्दा कुछ सोचता है और खुदा उससे ठीक उल्टा करता है।” शाही आज्ञा से इन बालकों को वहाँ से दिल्ली ले जाया गया।

दिल्ली में दोनों कुंवरों व रानियों को किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की हवेली में ठहराया गया। बादशाह की नीयत साफ न देखकर राठौढ़ रणछोड़दास, भाटी रघुनाथ, राठौड़ रूपसिंह, राठौड़ दुर्गादास आदि सरदारों ने फैसला किया कि यहाँ रहकर मरने में कोई लाभ नहीं, यदि जिन्दा रहे तो संघर्ष कर जोधपुर पर अधिकार कर लेंगे। इसलिए प्रमुख – प्रमुख राठौड़ सरदारों को दिल्ली से जोधपुर भेजने का फैसला किया गया। इस योजना का एक लाभ तो यह था कि जोधपुर पहुँचने वाले सरदार वहाँ अपनी शक्ति संगठित कर सकेंगे, वहीं बादशाह को उनकी अपने प्रति स्वामिभक्ति पर भी शक नहीं होगा। इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इस सम्पूर्ण योजना के पीछे दुर्गादास का मस्तिष्क ही था।

जब राठौड़ सरदार एक – एक कर दिल्ली से विदाई लेने लगे तो औरंगजेब ने इसकी शक्ति कम होती देख राज परिवार के प्रति अधिक कठोर नीति अपनानी प्रारम्भ कर दी। उसने कोतवाल फौलाद खाँ को आदेश दिया कि राठौड़ रानियों और राजकुमारों को रूपसिंह की हवेली से हटाकर नूरगढ़ पहुँचा दिया जाए और अगर राठौड़ इससे आनाकानी करें तो उन्हें दण्ड दिया जाये। सौभाग्य से इसके एक दिन पहले ही दुर्गादास और चाम्पावत सोनिंग अजीत सिंह को लेकर मारवाड़ के लिए निकल गए थे। बादशाह को जब राजकुमारों के भागने की खबर लगी तो उसने पीछा करने का आदेश दिया। दुर्गादास ने मार्ग में शाही सेना को रोक दिया जिसके कारण अजीत सिंह सुरक्षित जोधपुर पहुँचने में सफल रहा। इधर बादशाह ने एक जाली अजीतसिंह का नाम मोहम्मदी राज रखकर अपनी पुत्री जैबुन्निशा को परवरिश के लिए सौंप दिया।

4. राठौड़ – सिसौदिया गठबन्धन:

अजीत सिंह को लेकर मारवाड़ के सरदार जोधपुर पहुँचे किन्तु जोधपुर पर शाही अधिकार हो जाने के कारण वे अजीत सिंह की सुरक्षा को लेकर चिन्तित थे। इस कारण बालक अजीतसिंह को उनकी विमाता देवड़ाजी की सलाह पर कालिन्द्री (सिरोही) भेज दिया गया। यहाँ उसे पुष्करण ब्राह्मण जयदेव के संरक्षण में रखा गया और सुरक्षा के लिए गुप्त रूप से मुकुन्ददास खची को नियुक्त कर दिया गया।

महाराजा जसवन्त सिंह की सबसे बड़ी रानी जसवन्त दे बूंदी के राव छत्रसाल की पुत्री थी। उसकी सौतेली बहन कानन कुमारी का विवाह महाराणा राजसिंह के साथ हुआ था। इस कारण दुर्गादास ने काननकुमारी के माध्यम से उनके बहनोई महाराणा राजसिंह के पास अजीतसिंह को सुरक्षा देने की प्रार्थना भिजवाई। पूरे मामले से मेवाड़ की सुरक्षा भी जुड़ी हुई थी। इस कारण राजसिंह ने प्रार्थना को स्वीकार करते हुए अजीत सिंह को बारह गाँवों सहित केलवे का पट्टा दे दिया। ओरंगजेब को जब इस बात की जानकारी मिली तो उसने महाराणा के पास फरमान भेजकर अजीत सिंह की माँग की किन्तु महाराणा ने उस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया।

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5. शाहजादा अकबर का विद्रोह:

दुर्गादास ने महाराणा राजसिंह के साथ मिलकर शाहजादे मुअज्जम (जो दरबारी के पास उदय सागर पर ठहरा हुआ था) को बादशाह के खिलाफ खड़ा करने का प्रयत्न किया किन्तु मुअज्जम अपनी माता नवाब बाई की सलाह के कारा राजपूतों की इस योजना से सहमत नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने शाहजादा अकबर को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया। यद्यपि इसी दौरान अक्टूबर, 1680 ई. में महाराणा राजसिंह की मृत्यु हो गई किन्तु नये महाराणा जयसिंह के साथ भी यह वार्ता चलती रही। इसका परिणाम यह हुआ कि एक जनवरी, 1681 ई. को अकबर ने नाडोल में स्वयं को बोदशाह घोषित कर दिया और राजपूत सेना का साथ लेकर औरंगजेब के विरुद्ध अजमेर के लिए रवाना हो गया।

औरंगजेब की सेना ने अजमेर के पास दौराई नामक स्थान पर पड़ाव डाल रखा था। 15 जनवरी को औरंगजेब ने छल-कपट का सहारा लेते हुए अकबर के मुख्य सेनापति तहव्वर खाँ (अजमेर का फौजदार जो औरंगजेब का साथ छोड़कर अकबर के साथ हो गया था) को उसके ससुर इनायत खाँ (बादशाह का सेनापति) के द्वारा इस आशय का खत लिखाकर अपने पास बुलाया कि यदि वह चला आयेगा तो उसका अपराध क्षमा कर दिया जाएगा, अन्यथा उसकी स्त्रियाँ सबके सामने अपमानित की जायेंगी और बच्चे कुत्तों के मूल्य पर गुलामों के तौर पर बेच दिए जाएँगे। इस धमकी के कारण तहव्वर खाँ सोते हुए अकबर और दुर्गादास को सूचित किए बिना ही औरंगजेब के पास चला आया, जहाँ शाही नौकरों ने उसे मार डाला।

इसके बाद औरंगजेब ने अकबर और राजपूतों के बीच विरोध पैदा करने के लिए एक और चाल चली। उसने एक जाली पत्र अकबर के नाम इस आशय का लिखा कि तुमने राजपूतों के साथ खूब धोखा किया है और उन्हें मेरे सामने लाकर बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है। अब तुम्हें चाहिए कि उन्हें हरावल (युद्ध में सेना का सबसे आगे वाला भाग) में रखो, जिससे कल प्रात:काल के युद्ध में उन पर दोनों तरफ से हमला किया जा सके। यह पत्र किसी तरह दुर्गादास के डेरे के पास पहुँचा दिया गया जिसे पढ़ते ही उसके मन में खटका हो गया। दुर्गादास उसी समय अकबर के डेरे पर गया किन्तु अर्द्धरात्रि के समय उसे किसी भी दशा में जगाने की आज्ञा नहीं थी।

इसके बाद उसने तहव्वर खाँ को बुलाने के लिए आदमी भेजे तो पता चला कि वह तो बादशाह के पास जा चुका है। ऐसे में उसका सन्देह विश्वास में बदल गया और प्रातः काल होने से पहले ही राजपूत सेना अकबर का सामान लूटते ही मारवाड़ की तरफ चली गई। सुबह अकबर अपने को अकेला पाकर राजपूतों के पीछे भागा। दो दिन तक वह निराश्रित जान बचाता भागता रहा। तब दुर्गादास को औरंगजेब की चाल समझ में आई। उसने अकबर को अपने साथ लिया और सुरक्षित मराठा राज्य में पहुँचाया।

6. दुर्गादास को मारने का प्रयास:

जोधपुर में विद्रोह की सम्भावना से भयभीत औरंगजेब ने 1701 ई. में शहजादे आजम को लिखा कि दुर्गादास को शाही सेवा में भेजने का प्रयत्न करें या उसे मार डालें। आजम ने धोखे से दुर्गादास को गिरफ्तार करने का प्रयास किया किन्तु सन्देह का पूर्व ज्ञान हो जाने के कारण दुर्गादास बच निकला। मारवाड़ में पहुँच कर दुर्गादास मुगल क्षेत्रों में खुल्लमखुल्ला विद्रोह करने लगा।

7. महाराजा अजीत सिंह व दुर्गादास के बीच अनबन:

शिशु अजीत सिंह को औरंगजेब की चंगुल से बचाने का सर्वाधिक श्रेय दुर्गादास को ही है। दिल्ली से सुरक्षित निकालने के बाद दुर्गादास की योजनानुसार ही उसे गुप्त स्थान पर रखा गया था। अप्रैल, 1687 ई. में दक्षिण से लौटने पर दुर्गादास यह जानकर काफी व्यथित हुआ कि उसके निर्देशों के बावजूद उसके मारवाड़ लौटने से पहले ही 23 मार्च, 1687 ई.को अज्ञातवास से निकाल कर अजीत सिंह को पालड़ी गाँव (सिरोही) में सावर्जनिक किया जा चुका है। इस समय तक दुर्गादास से अप्रसन्न राठौड़ सामन्त अजीत सिंह के आसपास एकत्र हो चुके थे।

अब दुर्गादास की स्थिति में परिवर्तन आ गया और वह अजीत सिंह के भाग्य को निर्धारित करने वाले केन्द्रीय शक्ति नहीं। रहा। इस कारण उसने दूर रहकर बदलती हुई परिस्थितियों को समझने का फैसला किया। अक्टूबर, 1687 ई. में अजीत सिंह ने भीमरलाई गाँव में दुर्गादास से मिलकर गिले-शिकवे दूर किए। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु की खबर मिलने के बाद अजीतसिंह ने जोधपुर के नायब फौजदार जाफरकुली को भगाकर अपने पैतृक राज्य पर कब्जा कर लिया। यह आक्रमण इतनी जल्दी हुआ कि किले में मौजूद कुछ मुसलमानों को जान बचाने के लिए हिन्दुओं का वेश बनाकर भागना पड़ा।

जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है कि सांभर विजय (3 अक्टूबर, 1708 ई.) के बाद वहाँ डेरे होने पर दुर्गादास ने अपनी सेना सहित अलग डेरा किया। महाराजा ने उसे मिसल (सरदारों की पंक्ति) में डेरा करने को कहा तो उसने उत्तर दिया कि मेरी तो उमर अब थोड़ी रह गई है, मेरे पीछे के लोग मिसल में डेरा करेंगे। अजीत सिंह के व्यवहार से आहत दुर्गादास मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह द्वितीय की सेवा में चला गया और वहाँ से बुलाने पर भी जोधपुर नहीं लौटा।

अजीत सिंह ने दुर्गादास की अभिरक्षा में अकबर के बच्चों की सुरक्षा करने वाले रघुनाथ सांचोरा को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारकर अपमानित किया और काल कोठरी में भूखा – प्यासा रखकर मरने के लिए बाध्य कर दिया (अक्टूबर, 1707 ई.)। जुलाई, 1708 ई. में अपने महामन्त्री मुकुन्ददास चम्पावत तथा उसके भाई रघुनाथ चम्पावत की हत्या करवा दी। इतिहासकार रघुवीर सिंह के अनुसार इन घटनाओं से दुर्गादास को अहसास हो गया कि अगली बारी उसी की है।

8. अन्तिम समय:

महाराणा अमर सिंह द्वितीय ने उसे विजयपुर की जागीर देकर अपने पास रखा और उसके लिए पाँच सौ रुपये रोजाना नियत कर दिए। बाद में वह रामपुरा का हाकिम नियत किया गया, जहाँ रहते हुए 22 नवम्बर, 1718 ई. में उज्जैन में उसकी मृत्यु हो गई। उसका अन्तिम संस्कार क्षिप्रा नदी के तट पर किया गया, जहाँ आज भी उनकी छतरी बनी दुर्गादास का मूल्यांकन – शाहजहाँ के पुत्रों के बीच हुए उत्तराधिकार युद्ध के दौरान दुर्गादास ने महाराजा जसवन्त सिंह के साथ धरमत के युद्ध में भाग लिया था।

दुर्गादास के सम्पर्क में रहे समकालीन लेखक कुम्भकर्ण सांदू की रचना ‘रतनरासो’ में इस युद्ध के दौरान दुर्गादास की वीरता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि, “दुर्गादास राठौड़ ने एक के बाद एक चार घोड़ों की सवारी थी और जब चारों एक-एक कर मारे गए तो अन्त में वह पाँचवें घोड़े पर सवार हुआ, लेकिन यह पाँचवाँ घोड़ा भी मारा गया। तब तक न केवल उसके सारे हथियार टूट चुके थे बल्कि उसका शरीर भी बुरी तरह से घायल हो चुका था। अन्ततः वह भी रणभूमि में गिर पड़ा। ऐसा लगता था कि जैसे एक और भीष्म शरशैय्या पर लेटा हुआ हो। जसवन्त सिंह के आदेश से घायल दुर्गादास को युद्ध-स्थल से हटा लिया गया और जोधपुर भेज दिया गया।”

दुर्गादास एक कुशल कूटनीतिज्ञ था। उसने न केवल अजीत सिंह की रक्षा की अपितु जोधपुर के सिंहासन पर आसीन भी किया। इसके लिए उसने न केवल मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के साथ मिलकर ‘राठौर-सिसौदिया गठबन्धन’ किया अपितु शाहजादा अकबर को बादशाह के विरुद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित भी किया। अकबर का विद्रोह असफल होने के बाद उसे दक्षिण में सुरक्षित ले गया और उसके ईरान जाने तक साथ ही रहा। अकबर के पुत्र बुलन्द अख्तर और पुत्री सफी यतुन्निसा को न केवल अपने पास रखकर दुर्गादास ने मित्रता निभाई, वान् अपने धर्म दर्शन ‘सर्वपन्थ समादर’ को परिचय भी दिया।

उसने दोनों बच्चों की देख-रेख और शिक्षा-दीक्षा की भी ठीक वैसी ही व्यवस्था की जो कि एक सुन्नी मतावलम्बी के लिए आवश्यक होती है। अवसर आने पर उन्हें सम्मानपूर्वक बादशाह के पास भेज दिया। दुर्गादास ने अपने इन्हीं वीरोचित् गुणों द्वारा औरंगजेब जैसे पाषाण हृदय व्यक्ति का दिल जीत लिया और मनसब प्राप्त किया। कर्नल जेम्स टॉड ने उसे ‘राठौड़ों का यूलीसैस’ कहा है। राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने ‘जोधपुर राज्य का इतिहास’ का दूसरा खण्ड दुर्गादास राठौड़ को ही समर्पित किया है।

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