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गाँधीवाद के प्रमुख पहलुओं पर प्रकाश डालिए।

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गाँधीजी के विचारों व आदर्शों को ‘गाँधीवाद’, ‘गाँधी दर्शन’ एवं ‘गाँधी मार्ग’ आदि नामों से जाना जाता है।

गाँधीजी के जीवन मूल्य: गाँधीजी के चार आदर्श या जीवन मूल थे – सत्य, अहिंसा, प्रेम एवं भ्रातृत्व। इनके द्वारा वह व्यक्ति को उसकी दुष्प्रवृत्तियों से हटाना चाहते थे। वह राजनीति को भी धर्म व नैतिकता पर आधारित करना चाहते थे। वह व्यक्ति में प्रेम, स्वतन्त्रता, पुरुषार्थ, धर्म आदि सद्गुणों का विकास करना चाहते थे। इस प्रकार गाँधीवाद जीवन-दर्शन या जीवन शैली से सम्बन्धित है।

गाँधीवाद विचारों का समूह मात्र: गाँधीजी के विचार व आदर्श परिस्थितिजन्य होने के कारण सार्वदेशिक तथा सार्वभौमिकं थे। उनके विचार व्यापक, बहुमार्गी एवं बहुआयामी थे। उनके विचारों पर भारतीय व पाश्चात्य दोनों श्रेणियों के विचारों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वह एक व्यक्तिवादी, आदर्शवादी, समाजवादी, उदारवादी, राष्ट्रवादी तथा अन्तर्राष्ट्रवादी थे किन्तु सबसे पहले वह एक मानवतावादी थे।

आध्यात्मिक समाजवाद: गाँधीजी ने मार्क्स की इतिहास की भौतिकतवादी या आर्थिक व्याख्या एवं वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया क्योंकि ये हिंसा पर आधारित थे। इसके स्थान पर उन्होंने ‘आध्यात्मिक समाजवाद’ का प्रतिपादन किया। उन्होंने गहन आन्तरिक विकास पर बल दिया। साथ ही वर्ग सहयोग की वकालत की। उनका समाजवाद नैतिकता, हिन्दुत्व, ग्राम्य मानवतावाद एवं प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित था।

गाँधीवाद के स्त्रोत- गाँधी जी के विचारों के चार स्त्रोत रहे हैं –

  1. धार्मिक ग्रन्थों का प्रभाव – गाँधीजी सनातन धर्म ग्रन्थों जैसे कि वेद, उपनिषदे, रामायण, महाभारत व भगवद्गीता की शिक्षाओं से बहुत अधिक प्रभावित थे। इसके अतिरिक्त जैन व बौद्ध धर्म ग्रन्थों तथा बाइबिल की शिक्षाएँ भी उनके विचारों की प्रेरणा स्त्रोत रहीं।
  2. दार्शनिकों का प्रभाव – गाँधीजी के विचारों पर जॉन रस्किन, हेनरी डेविड थोरो, लियो टॉलस्टॉय व सुकरात के विचारों का भी प्रभाव पड़ा।
  3. सुधारवादी आन्दोलनों का प्रभाव
  4. सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को प्रभाव

राजनीति का आध्यात्मीकरण: गाँधी के लिये धर्म राजनीति से पृथक नहीं है वरन् एक ही कार्य है। दोनों का ही उद्देश्य सामाजिक जीवन में अनुकूल परिवर्तन लाना है तथा न्याय पर आधारित समाज की स्थापना करना है।

साध्य और साधनों की पवित्रता: गाँधीजी साध्य व साधन में कोई भेद नहीं करते हैं। उनके अनुसार दोनों शुद्ध, श्रेष्ठ व पवित्र होने चाहिये। साधन एक बीज की तरह है और साध्य वृक्ष के समान है।

साधन रुप में अहिंसा व सत्याग्रह: गाँधीजी के अनुसार अहिंसा का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किसी का दिल न दुखाना । सत्याग्रह का अर्थ है कि व्यक्ति सत्य की प्राप्ति के लिये अटल रहे। गाँधीजी ने सत्याग्रह का प्रयोग सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में किया। सत्याग्रह का प्रयोग निम्नलिखित विधियों से किया जाता है

  1. असहयोग – इसका अर्थ है कि व्यक्ति जिसे असत्य समझता है या बुराई समझता है उसके साथ सहयोग न करे। इसके लिये हड़ताल, सामाजिक बहिष्कार व धरना आदि का सहारा लिया जाता है।
  2. हिजरत – प्रवजन या हिजरत वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति आत्मसम्मान को बचाने के लिये अपना स्थान छोड़कर अन्य किसी स्थान पर चला जाता है।
  3. सविनय अवज्ञा – इसका अभिप्राय अनैतिक रूप से अधिनियमित कानून को भंग करना है।
  4. उपवास – गाँधीजी ने इसे ‘आध्यात्मिक औषधि’ की संज्ञा दी।

पूँजीवाद का विरोध – गाँधीजी ने यन्त्रों की भर्त्सना की। उनके अनुसार यह मानव श्रम का स्थान ले लेता है। साथ ही उन्होंने पूँजीवाद की भी आलोचना की कि यह शोषण, निर्धनता व साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है।

आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर करने के लिए गाँधी जी ने निम्नलिखित चार सुझाव दिये–

1. अस्तेय और अपरिग्रह- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना अर्थात् कोई वस्तु या धन उसके स्वामी की आज्ञा के बिना न लेना। गाँधीजी ने शारीरिक, मानसिक, वैचारिक व आर्थिक सभी प्रकार की चोरी से दूर रहने के लिए कहा था। उनके अनुसार इससे आर्थिक विषमता का अस्त होगा।

2. दृस्टीशिप का सिद्धान्त – इसके अनुसार पूँजीपतियों को अपनी आवश्यकता के अनुसार ही संपत्ति का प्रयोग करना चाहिये तथा शेष संपत्ति का ट्रस्टी बनकर इसका उपयोग जनकल्याण के कार्यों में करना चाहिये।

3. स्वदेशी – गाँधीजी सभी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं करते थे वरन् उन विदेशी वस्तुओं को स्वीकार करते थे जो भारतीय उद्योगों को कुशल बनाने के लिये अनिवार्य हैं।

4. खादी का अर्थशास्त्र – भारत के आर्थिक पुनर्निमाण तथा ग्रामों की आत्म निर्भरता के लिये गाँधीजी ने खादी अर्थात् चरखे को महत्व दिया।

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