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मूल अधिकारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

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मूल अधिकारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन: मूल अधिकारों की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की गई है

(i) मूल अधिकारों पर अत्यधिक प्रतिबन्ध – मूल अधिकारों के सम्बन्ध में आलोचकों का मत है कि मूल अधिकारों पर इतने प्रतिबंध लगा दिए गए हैं कि इनके बारे में कहा जाता है कि संविधान द्वारा एक हाथ से मूल अधिकार प्रदान किए गए व दूसरे हाथ से ले लिये गये।

(ii) शांतिकाल में भी प्रतिबन्ध – मूल अधिकार आपातकाल में स्थगित किए जा सकते हैं। यह तो न्यायोचित लगता है, पर शांति काल में भी उनके स्थगन का प्रावधान मूल अधिकारों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है। सामान्य परिस्थितियों में भी निवारक नजरबंदी की जो व्यवस्था की गई है वह कटु आलोचना का विषय रही है। संविधान के सदस्य हरिविष्णु कामथ के अनुसार इस व्यवस्था द्वारा हम तानाशाही राज्य की और पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।

(iii) भारतीय नागरिकों को व्यवस्थापिका की निरंकुशता से सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ नहीं – मूल अधिकार भारतीय नागरिकों को व्यवस्थापिका की निरंकुशता से मुक्ति दिलाने में समर्थ नहीं हैं। संसद या विधानसभाएँ कई बार मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल कानून का निर्माण कर देती हैं।

(iv) प्रतिबन्धों की व्यवस्था राजनीतिक विरोधियों के स्वर को दबाने के लिए – मूल अधिकारों पर प्रतिबन्धों की व्यवस्था संविधान में राष्ट्र व समाज विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए की गई। व्यावहारिक दृष्टि से इनका प्रयोग राजनीतिक विरोधियों के स्वर को दबाने के लिए भी किया गया है।

(v) विशेष वर्गों के संरक्षण की व्यवस्था का प्रयोग - वोट की राजनीति के लिए भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष संरक्षण की व्यवसथा की गई है। किंतु इसका प्रयोग वोटों की राजनीति के लिए हुआ है।

(vi) शोषण के विरुद्ध अधिकारों को लागू करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं – शोषण के विरुद्ध अधिकार यद्यपि महिलाओं, बच्चों व निर्धन श्रमिकों के हितों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनाया गया है किंतु बेराजगारी, अशिक्षा, निर्धनता व अज्ञानता के कारण बालश्रम को जोखिम भरे काम से रोक पाना व्यावहारिक रूप में संभव नही है।

(vii) जटिल व खर्चीली न्यायिक प्रक्रिया – मूल अधिकारों में न्यायिक संरक्षण व सुरक्षा का उल्लेख किया गया है। लेकिन वर्तमान में न्यायिक प्रक्रिया लम्बी, जटिल व खर्चीली होने के कारण आम नागरिकों के हितों की रक्षा में सफल नही हो पा रही है।

उपरोक्त आलोचना के बावजूद भी मूल अधिकारों का महत्व कम नही हुआ है क्योंकि राष्ट्र की सुरक्षा व्यक्ति की सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मूल अधिकारों के अतिक्रमण की परिस्थिति अल्पकालिक ही होती है। आवश्यकता इस बात की है।

कि हमारे देश के नागरिक मूल अधिकारों के प्रति जागरूक हों एवं इन्हें क्रियान्वित करने में पूर्ण सहयोग दें। संसद व कार्यपालिका द्वारा इस पर किए गए अतिक्रमण की स्थिति में न्यायालय में शरण लें तथा उनके द्वारा निर्मित असंवैधानिक कानून को अवैध घोषित कराएँ।

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