लेखक-परिचय - हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकार एवं कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म औराही हिंगना (जिला पूर्णिया, अब अररिया) बिहार में सन् 1921 में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई।
'भारत छोड़ो आन्दोलन' में सक्रिय भाग लेने से पढ़ाई बीच में ही छोड़कर राजनीति में रुचि लेने लगे। इनका जीवन संघर्षमय रहा। ये प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक तथा सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय रहे। साथ ही रचनात्मक साहित्य की ओर उन्मुख होकर नये तेवर देने में अग्रणी बने। इनका निधन सन् 1977 ई. में पटना में हुआ।
रेणुजी की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-'मैला आंचल', 'परती परिकथा', 'दीर्घतपा', 'जुलूस', 'कितने चौराहे' (उपन्यास); 'ठुमरी', 'अग्निखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप' (कहानी-संग्रह); 'ऋणजल धनजल', 'वन तुलसी की गन्ध', 'श्रुत-अश्रुत पूर्व' (संस्मरण); 'नेपाली क्रान्ति कथा' (रिपोर्ताज)। उनकी रचनाओं में 'मैला आंचल' का आंचलिकता की दृष्टि से अन्यतम महत्त्व है।
पाठ-सार - 'पहलवान की ढोलक' फणीश्वरनाथ 'रेणु' की प्रतिनिधि कहानियों में से एक है। इसमें कथानायक लुट्टन सिंह पहलवान की जिजीविषा एवं हिम्मत का चित्रण किया गया है।
इसका सार इस प्रकार है
1. गाँव की भयानक स्थिति-जाड़े के दिन थे। गाँव में हैजा और मलेरिया का प्रकोप था। अमावस्या की रात की निस्तब्धता में सियारों एवं उल्लुओं की आवाज डरावनी लग रही थी। मलेरिया और हैजा की महामारी से ग्रस्त गाँव की झोंपड़ियों से रोगियों की कराहने की आवाजें और बच्चों की 'माँ माँ' की करुण पुकार भी कभी-कभी सुनाई दे रही थीं।
2. लुट्टन पहलवान की ढोलक- रात्रि के ऐसे भयावह वातावरण में लट्टन पहलवान की ढोलक बजती रहती थी। सन्ध्याकाल से लेकर प्रात:काल तक एक ही गति से ढोलक बजती रहती-'चट् धा, गिड़-धा...चट् धा गिड़-धा', अर्थात् 'आ जा भिड़, आ जा भिड़।' बीच-बीच में उसकी ताल बदलती रहती थी। लुट्टन पहलवान के कारण उस गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
3. लुट्टन का बचपन-लुट्टन की शादी बचपन में हो गई थी। उसके माता-पिता उसे नौ वर्ष में ही अनाथ छोड़कर चल बसे थे। तब उसकी विधवा सास ने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया। वह बचपन में गायें चराता, ताजा दूध पीता और कसरत करता था। नियमित कसरत से वह जवानी में कदम रखते ही अच्छा पहलवान बन गया। तब वह कुश्ती भी लड़ता था।
4. श्यामनगर का दंगल-लुट्टन एक बार दंगल देखने श्यामनगर मेले में गया। वहाँ पर पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया और उसने बिना सोचे-समझे 'शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। पंजाब का पहलवान चाँदसिंह अपने गुरु बादलसिंह के साथ मेले में आया था। चाँदसिंह को ही 'शेर का बच्चा' टायटिल प्राप्त था। दर्शकों ने लुट्टन की चुनौती सुनकर उसका उपहास किया। पंजाबी पहलवानों का दल उसे गालियाँ देने लगा। राजा साहब ने भी विवश होकर उसे कुश्ती लड़ने की आज्ञा दे दी।
5. कुश्ती में विजयी- ढोल बजने लगा। कुश्ती प्रारम्भ हुई। उस समय ढोल की ताल सुनकर लुट्टन जोश में आ गया। ढोल से 'चट-गिड धा, ढाक दिना, तिरकट तिना, धाक तिना' इत्यादि तालें निकल रही थीं, जिसका लट्टन ने यह आशय लिया कि 'मत डरना, वाह पढे, दाँव काटो, उठा पटक दो, चित्त करो, वाह बहादुर' इत्यादि। इस प्रकार ढोल की ताल के अनुसार दाँव मारने से लुट्टन ने चाँदसिंह पहलवान को चारों खाने चित कर दिया। तब दर्शकों ने महावीरजी की, माँ दुर्गा की जयकार लगायी। तब राजा साहब ने लुट्टन के नाम के साथ 'सिंह' जोड़कर उसे शाबाशी देते हुए सदा के लिए राज-दरबार में रख लिया।
6. पन्द्रह वर्ष का इतिहास- राज-दरबार का आश्रय पाकर लुट्टन सिंह ने काला खाँ आदि पहलवानों को पराजित कर अपनी कीर्ति फैलायी। उसने अपने दोनों पुत्रों को भी पहलवान बना दिया। दंगल में दोनों पुत्रों को देखकर लोग कहते - 'वाह ! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ये दोनों बेटे!' पन्द्रह वर्ष का समय बीत गया। तब वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गये। नये राजकुमार ने विलायत से आते ही शासन हाथ में लिया। उन्होंने अनेक परिवर्तन किये तथा पहलवानों की छुट्टी कर दी। अतः अपने पुत्रों के साथ लुट्टन पहलवान गाँव लौट आया।
7. अन्तिम जीवन काल- लुट्टन की सास और पत्नी का निधन हो गया था। गाँव में आकर लुट्टन अपने पुत्रों को दाँव-पेंच सिखाता। वह स्वयं ढोलक बजाता था। अकस्मात् गाँव में महामारी फैली, जिससे रोज दो-तीन लोग मरने लगे। एक दिन पहलवान के दोनों पुत्र भी चल बसे। लुट्टन ने उस दिन राजा साहब द्वारा दी गई रेशमी जांघिया पहनी, फिर दोनों पुत्रों के शव उठाकर नदी में बहा आया। चार-पांच दिन बाद जब एक रात में ढोलक नहीं बजी, तो प्रात:काल जाकर शिष्यों ने देखा कि पहलवान की लाश चित पड़ी थी। तब उन्होंने अपने गुरु की इच्छा के अनुसार लाश को पेट के बल चिता पर लिटाया और उसे आग देते समय वे ढोल बजाते रहे।