संधारित्र एवं उसका सिद्धान्त (Capacitor and its Principle)
"वह युक्ति (device) जिसमें चालक के आकार को बिना बदले उसकी बारिता बढ़ायी जा सकती है, संधारित्र कहलाती है।"
किसी चालक को q आवेश देने पर यदि उसका विभव V हो जाता है, तो उसकी धारिता
C = \(\frac{q}{V}\)
स्पष्ट है कि यदि किसी प्रकार आवेश q के लिए विभव का मान V से कम हो जाये, तो चालक की धारिता C बढ़ जायेगी। इसी विचार से संधारित्र की खोज हुई। संधारित्र का सिद्धान्त (principle) निम्नलिखित तीन पदों में समझा जा सकता है-
(i) माना किसी चालक A को q आवेश देने पर उसका विभव V हो जाता है, तो उसकी धारिता
C = \(\frac{q}{V}\) .........(1)
(ii) अब यदि चालक A के पास इसी प्रकार का दूसरा अनावेशित चालक B लाया जाये, तो प्रेरण (induction) द्वारा उसका आवेशन (charging) चित्र (b) की भाँति होगा।

(ii) अब यदि चालक B को पृथ्वी से सम्बन्धित कर दिया जाये, तो उसका समस्त धनादेश पृथ्वी में चला जायेगा। इस नवीन स्थिति में यदि चालक A का विभव V' हो, तो A की धारिता
C' = \(\frac{q}{V'}\) .........(2)
समीकरण (1) व (2) से,
\(\frac{C'}{C} = \frac{q/V'}{q/V} = \frac{V}{V}\)
या \(\frac{C'}{C} = \frac{V}{V'}\) ............(3)
परन्तु V' = चालक A के आवेश के कारण विभव + चालक B के आवेश के कारण उत्पन्न विभव
या V' = V - V"
इसी समीकरण से स्पष्ट है कि
V > V'
∴ समी. (3) से, C' > C
अर्थात् "जब एक आवेशित चालक के पास दूसरा अनावेशित एवं पृथ्वी से सम्बन्धित चालक लाया जाता है तो पहले चालक की धारिता बढ़ जाती है।" यही संधारित्र का सिद्धान्त है। इस प्रकार उक्त सिद्धान्त से स्पष्ट है कि संधारित्र में दो पृथक्कित धात्वीय प्लेटें (separated metallic plates) होती है जिसमें एक को आवेश दिया जाता है और दूसरी को भूसम्पर्कित कर देते हैं। जब प्लेटों के मध्य किसी परावैद्युत माध्यम की जगह वायु होती है तो उसे वायु संधारित्र कहते हैं।
गोलाकार संधारित्र की धारिता (Capacity of Spherical Capacitor)
गोलाकार संधारित्र की रचना चित्र में दिखायी गई है। इसमें दो समकेन्द्रीय (concentric) गोलीय प्लेटें A व B होती है। बाहरी प्लेट B को पृथ्वी से सम्बन्धित किया जाता है और भीतरी प्लेट A को +q आवेश दिया जाता है। बाहरी गोले पर प्रेरण द्वारा उत्पन्न धनात्मक आवेश पृथ्वी में चला जाता है और केवल ऋणात्मक आवेश रह जाता है। अत:

भीतरी गोले पर उत्पन्न विभव
V = V1 + V2
जहाँ V1 = भीतरी गोले के +q आवेश के कारण उत्पन्न विभव
= + \(\frac{1}{4\pi \varepsilon_0 K} \frac{q}{r^1}\)
और V2 = बाहरी गोले के -q आवेश के कारण उत्पन्न विभव
= \(-\frac{1}{4\pi \varepsilon_0 K} . \frac{q}{r^2}\)

चूंकि बाहरी गोला पृथ्वी से सम्बन्धित है अतः इसका विभव शून्य होगा।
∴ दोनों गोलों के मध्य विभवान्तर
= V - 0 = V
∴ संधारित्र की धारिता

समीकरण (1) से स्पष्ट है कि गोलाकार संधारित्र को धारिता निम्न प्रकार बढ़ायी जा सकती है-
(i) गोलों की त्रिज्याएँ r1 व r2 बड़ाकर, लेकिन यह संधारित्र के सिद्धान्त के विरुद्ध है, अत: त्रिज्याएँ बढ़ाकर धारिता नहीं बढ़ायी जाती है।
(ii) C ∝ K अर्थात् दोनों गोलों के मध्य अधिक परावैद्युतांक (dielectric constant) वाला परावैद्युत माध्यम (dielectric medium) रखकर धारिता बढ़ायी जा सकती है।
(iii) C ∝ \(\frac{1}{(r_2 - r_1)}\) अर्थात् दोनों गोलों के मध्य दूरी घटाकर धारिता बढ़ाई जा सकती है।