रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचंद के चिंतन से दिनकर असंतुष्ट इसलिए हैं कि अर्द्धनारीश्वर रूप उनके चिंतन में कहीं प्रकट नहीं हुआ। बल्कि नारी को नीचा दिखाने, उसे अधीन करने की ही बात कही गयी है। दिनकर मानते हैं कि अर्द्धनारीश्वर की कल्पना में इस बात के संकेत हैं कि नर-नारी पूर्ण रूप से समान हैं एवं उनमें से एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते । दिनकर पाते हैं यह दृष्टि रवीन्द्रनाथ के पास नहीं है। वे नारी के गुण यदि पुरुष में आ जाएँ तो उसको दोष मानते हैं। नारियों को कोमलता ही शोभा देती हैं। वे कहते हैं कि -
नारी यदि नारी हय
की होड़वे कर्म-कीर्त्ति, वीर्यबल, शिक्षा-दीक्षा तार ?
अर्थात् नारी की सार्थकता उसकी भंगिमा के मोहक और आकर्षक होने में है, केवल पृथ्वी की शोभा, केवल आलोक, केवल प्रेम की प्रतिमा बनने में हैं। कर्मकीर्ति, वीर्यबल और शिक्षा-दीक्षा लेकर वह क्या करेगी ? प्रेमचन्द ने कहा है कि "पुरुष जब नारी के गुण अपना लेता है तब वह देवता बन जाता है, किन्तु नारी जब नर के गुण सीखती है तब वह राक्षसी हो जाती है।" इसी प्रकार प्रसाद जी इड़ा के विषय में यदि कहा जाय कि इड़ा वह नारी है जिसने पुरुषों के गुण सीखे हैं तो निष्कर्ष निकलेगा कि प्रसादजी भी नारी को पुरुषों के क्षेत्र से अलग रखना चाहते हैं। नारियों के प्रति इस तरह के भाव तीन बड़े चिंतकों को शोभा नहीं देता है। इसीलिए दिनकर इनके चिंतन से दुखी हैं। नारी संसार में सर्वत्र नारी है और पुरुष पुरुष ।