ब्रिटिश शासन के दौरान जनजातीय आंदोलनों की विशेषता उनकी आवृत्ति, उग्रवाद और हिंसा थी । इन आंदोलनों को मुख्य भूमि के जनजातीय विद्रोहों और सीमांत जनजातीय विद्रोहों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिनमें से बाद वाले भारत के पूर्वोत्तर भाग में केंद्रित थे। मुख्य भूमि के जनजातीय विद्रोह ऐसे कारकों से भड़के थे - जनजातीय भूमि और जंगलों में परिवर्तन, संयुक्त स्वामित्व परंपरा का नुकसान और बाहरी लोगों द्वारा शोषण ।
दूसरी ओर, पूर्वोत्तर सीमांत जनजातियों ने भारतीय संघ के भीतर राजनीतिक स्वायत्तता या पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की, जिसके कारण गैर-सीमांत आदिवासी आंदोलनों के विपरीत लंबे समय तक चलने वाले और अनोखे विद्रोह हुए। आदिवासी प्रमुखों के नेतृत्व में, ये आंदोलन शुरू में सामाजिक-धार्मिक मुद्दों और उत्पीड़न पर शुरू हुए और बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में विलीन हो गए। आदिवासी आमतौर पर उत्पीड़कों के खिलाफ विद्रोह के तरीके के रूप में पारंपरिक हथियारों का इस्तेमाल करते थे।
भारत में जनजातीय आंदोलन
भारतीय समाज में आदिवासी समूहों की महत्वपूर्ण और अविभाज्य भूमिकाएँ थीं । ब्रिटिश क्षेत्रों में उनके विलय और उसके बाद शामिल होने से पहले, उनकी अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाएँ थीं। अंग्रेजों ने नए नियम लागू किए और आदिवासियों और राज्य के बीच की सीमा को तोड़ दिया। इससे सरकार और आदिवासियों के बीच कई संघर्ष हुए । इन संघर्षों को आदिवासी आंदोलन/विद्रोह का नाम दिया जा सकता है।
जनजातीय आंदोलन के कारण
भारत में नकदी फसलों की खेती शुरू करने के लिए उनके क्षेत्रों पर कब्जा करके और जंगलों को साफ करके, ब्रिटिश प्रशासन ने अपेक्षाकृत अलग-थलग पड़े आदिवासी समूहों को उपनिवेशवाद के दायरे में ला दिया।
जनजातीय विद्रोह के कारणों पर निम्नलिखित विचार किया जा सकता है:
- भूमि का हस्तांतरण: आदिवासी समुदायों को औपनिवेशिक शक्तियों और जमींदारों द्वारा भूमि अधिग्रहण और अतिक्रमण का सामना करना पड़ा, जिससे उनके पारंपरिक क्षेत्र और आजीविका का नुकसान हुआ। अंग्रेजों ने घोषणा की कि जंगल राज्य की संपत्ति हैं।
- शोषणकारी राजस्व प्रणाली: अंग्रेजों ने एक नई भूमि राजस्व प्रणाली और जनजातीय उत्पादों पर कर लागू किया, जिसके परिणामस्वरूप भूमि पर आदिवासियों के पारंपरिक अधिकार समाप्त हो गए।
- वन नीतियाँ: वन विभाग (1864), वन अधिनियम (1865) और भारतीय वन अधिनियम (1878) ने आदिवासियों की वनों और प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच को प्रतिबंधित कर दिया, जिससे उनके पारंपरिक शिकार, संग्रहण और कृषि प्रथाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
- बिचौलियों का प्रवेश: अंग्रेजों ने जंगलों में व्यापारियों और साहूकारों को प्रवेश कराया, तथा पुलिस अधिकारियों और छोटे कर्मचारियों द्वारा उत्पीड़न और जबरन वसूली से आदिवासियों के बीच संकट बढ़ गया।
- सांस्कृतिक दमन: ईसाई मिशनरियों और जनजातीय समूहों के बीच उनकी गतिविधियों को उनकी संस्कृति और विश्वासों के लिए खतरा माना जाता था।
भारत में प्रमुख जनजातीय विद्रोह
पहाड़िया विद्रोह - पहाड़िया संताल परगना के राजमहल पहाड़ियों में रहने वाला एक आदिवासी समूह था । भारत में ब्रिटिश शासन के आने से पहले, उन्होंने वस्तुतः स्वतंत्रता बनाए रखी थी। ये लोग पूरे क्षेत्र को अपना देश मानते थे और अजनबियों के प्रति शत्रुतापूर्ण थे। अपनी भौगोलिक एकांतता के कारण, पहाड़िया लोगों ने अंग्रेजों के आने से पहले हमेशा अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखा था।
चुआर विद्रोह - चुआर विद्रोह आधुनिक पश्चिम बंगाल के बांकुरा/मिदनापुर जिलों में शुरू हुआ। "चुआर" शब्द का प्रयोग बंगाल में स्थानीय आदिवासियों के लिए किया जाता था और यह एक अपमानजनक शब्द था (जिसका अर्थ सुअर था)।
तामार विद्रोह - तमाड़ विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों को भूमि से वंचित किया जाना था। अंग्रेजी कंपनी, तहसीलदारों, जमींदारों एवं गैर आदिवासियों (दिकू) द्वारा उनका शोषण किया जाना था। इस विद्रोह का प्रारंभ 1782 में छोटानागपुर की उरांव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ हुआ, जो 1794 तक चला।
भील विद्रोह - भील भारत की सबसे बड़ी जनजाति है । 1818 का भील विद्रोह, देश में जनजातिय समूह द्वारा किए गए पहले विद्रोहों में से एक था । विद्रोह का कारण मुख्यतः ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों भीलों से क्रूर व्यवहार था, जिसने उन्हें उनके पारंपरिक वन अधिकारों से वंचित कर दिया और उनका शोषण किया ।
रामोसी विद्रोह - यह पश्चिमी घाट क्षेत्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में 1877-1887 के बीच ब्रिटिश सरकार द्वारा अकाल-विरोधी कार्रवाई न करने के खिलाफ किसानों का विद्रोह था। सतारा में रामोसी विद्रोह 1822 में चित्तूर सिंह के नेतृत्व में हुआ था।
अहोम विद्रोह - 1828से 1830 तक असम के अहोम वर्ग के लोगों ने कम्पनी पर वर्मा युध्द के दौरान दिये गये वचनों को पूरा ना करने का दोषारोपण किया और अंग्रेज अहोम प्रदेश को भी अपने प्रदेश में सम्मिलित करने का प्रयास कर रहे थे| परिणामस्वरुप अहोम लोगों ने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर दिया और 1828 में रंगपुर पर चढाई करने की योजना बनाई और 1830 में दूसरे विद्रोह की योजना बनाई|
कोल विद्रोह - कोल विद्रोह झारखंड के कोल जनजाति द्वारा अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ 1831 ईसवी में किया गया एक विद्रोह है, जो 1833 तक चला। यह भारत में अंग्रेजों के खिलाफ किया गया एक महत्वपूर्ण विद्रोह है।
संथाल विद्रोह - आधुनिक भारत के झारखंड में, संथाल लोगों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह को संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion in Hindi) या संथाल हूल के नाम से भी जाना जाता है। 10 नवंबर, 1855 को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा मार्शल लॉ लगाया गया था, और यह 3 जनवरी, 1856 तक जारी रहा, जब इसे हटा लिया गया और प्रेसीडेंसी बलों द्वारा विद्रोह को दबा दिया गया।
बिरसा मुंडा विद्रोह - मुंडा विद्रोह का तात्पर्य बिरसा मुण्डा के विद्रोह से है । बिरसा मुंडा को झारखंड की जनजातियां अपना मसीहा मानती हैं । बिरसा 1893 -94 ई. से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ झंडा बुलंद करने लगे थे । उन्होंने गाँव की ऊसर जमीन को वन विभाग द्वारा अधिगृहीत किए जाने से रोकने के लिए चलाये जा रहे एक अभियान में हिस्सा लिया था । 1895 ई. में बिरसा ने परमेश्वर के दर्शन होने तथा दिव्य शक्ति प्राप्त होने का दावा किया ।