1) वे मुस्काते फूल, नहीं-
जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं-
जिनको भाता है बुझ जाना;
कवयित्री अपने प्रियतम (परमात्मा) को संबोधित करती हुई कहती है- देव, मैंने सुना है कि तुम्हारे लोक में फूल सदैव मुस्काते हुए खिले रहते हैं, जिन्हें मुरझाना नहीं आता। तुम्हारे यहाँ दीप रूपी तारे भी हमेशा जगमगाते रहते हैं और वे बुझते नहीं है। महादेवी देवलोक की इस विशेषता को महत्वहीन मानती है। उनका कहना है कि फूलों की खूबसूरती खिलकर मुरझाने में और तारों की सुंदरता जगमगा कर बुझ जाने में है। जीवन का असली सौन्दर्य तो सुख और दुःख के साथ है।
2) वे नीलम से मेघ, नहीं-
जिनको है घुल जाने की चाह,
वह अनन्त ऋतुराज, नहीं-
जिसने देखी जाने की राह!
कवयित्री कहती है- देव, आपके लोक में नीलम के समान बादल है जो कभी घुलते नहीं है। ऐसे बादल जिनमें घुलने की चाह, मिलकर बिखरने की चाह नहीं हो वे कृत्रिम ज्ञात पड़ते है। बादलों का महत्त्व तो घुलकर बरसने में ही है।
आपके यहाँ तो हमेशा एक ही ऋतु रहती है। वह पृथ्वी की तरह कभी बदलती नहीं है। ऋतुओं का काम तो आना और जाना है। परिवर्तन में ही तो जीवन का आनंद है।
3) वे सूने से नयन, नहीं-
जिनमें बनते आँसू-मोती;
वह प्राणों की सेज, नहीं-
जिनमें बेसुध पीड़ा सोती;
कवयित्री कहती हैं- देव, देवलोक के लोगों को कोई दुःख दर्द नहीं है। वहाँ किसी के भी आँखों में आँसू मोती बनकर नहीं गिरते है। सुख और दुःख तो जीवन का अभिन्न अंग है। दुःख है.तभी तो सुख का आनंद है। लगता है देवलोक दुःखों से घबराता है।
सुना है देवलोक में किसी को विरह वेदना नहीं होती। वहाँ अपने प्रियतम के वियोग में कोई तड़पता नहीं है। प्रेम का महत्त्व तो वियोग से, बिछड़ने से ही मालूम होता है।
4) ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं, नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं-
जिसने जाना मिटने का स्वाद!
कवयित्री कहती है- देव, तुम्हारे लोक में वेदना का अभाव है। अवसाद नहीं है। दुःख नहीं है। ऐसे लोक का क्या महत्त्व है? जब तक मनुष्य दुःख नहीं भोगे, अंधकार का अनुभव नहीं करे तब तक उसे सुख और जीवन के आनंद का अनुभव नहीं हो सकता। सुख और दुःख तो जीवन का दूसरा नाम है। जीवन का महत्तव प्रतिकूल स्थितियों से टकराकर आगे बढ़ने में है। जिसने जलना नहीं जाना, मिटना नहीं सीखा, उसे जीवन कैसे कह सकते हैं?
5) क्या अमरों का लोक मिलेगा?
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
कवयित्री अंत में ईश्वर को संबोधित करती हुई कहती है – देव, आप मुझे उपहार में अमर लोक देना चाहते हैं। दुःख-दर्द रहित खुशी देना चाहते हैं। मगर हे देव, मुझे तो यही गतिशील संसार पसंद है। हे भगवान! मधुर पीड़ा से मर मिटने का अधिकार दो अर्थात् मुझे इसी लोक में छोड़ दो।