सारांश :
डॉ. रामकुमार वर्मा की प्रसिद्ध सांस्कृतिक एकांकी ‘प्रतिशोध’ है। इसका कथानक संस्कृत के महाकवि भारवि के जीवन से संबंधित है। भारवि की माँ सुशीला बेटे के घर न लौटने के कारण दुखी है। भारवि के पिता श्रीधर अपनी पत्नी सुशीला को समझाने का भरसक प्रयास करते हैं। परन्तु सुशीला का मन भारवि के मोह से मुक्त नहीं हो पाता है।
भारवि के पिता का कहना है कि भारवि कवि है और कवि समय पर शासन करता है, समय उस पर शासन नहीं करता। वह समस्त संसार में रहकर भी संसार से परे हो जाता है, किन्तु वह अपनी कल्पना से न जाने कितने संसारों का निर्माण कर सकता है। तो क्या वह कल्पना से अपनी माता का भी निर्माण कर सकता है? कहीं आप ही ने उसे घर आने से तो नहीं रोक दिया, मैं कभी रोक सकता हूँ? पिता सब कुछ कर सकता है, वह घर से, जाति से, समाज से कभी भी निर्वासित कर सकता है, किन्तु हृदय से निर्वासित नहीं कर सकता। किन्तु पिता घर से निर्वासित तभी कर सकता है जब वह अन्याय का आचरण करे, धर्म के प्रतिकूल चले तो यह भी संभव है।
यदि पिता चाहता है कि उसका पुत्र सुमार्ग पर चले, तो कभी ताड़ना भी अनिवार्य हो जाती है। इधर कई दिनों से मैंने देखा कि पंडितों की हार से उसका अहंकार बढ़ता जा रहा है। उसे अपनी विद्वता का घमण्ड हो गया है। उसका गर्व सीमा का अतिक्रमण कर रहा है। मैं यह सहन नहीं कर सकता कि मेरा पुत्र दम्भी हो। इसलिए मैंने उसे ताड़ना दी और उग्र रूप से दी। इसलिए भारवि ने एक बार व्यथित दृष्टि से मेरी ओर देखा, फिर ग्लानि से अपने हाथों से अपना मुख छिपा लिया और चुप-चाप चला गया।
भारवि नाराज होकर अपने पिता से बदला लेना चाहता था। भारवि को समझ में आ जाता है कि उसके पिता श्रीधर ने उसकी उन्नति के लिए और उसके अहंकार को मिटाने के लिए यह निर्णय लिया था।
तत्पश्चात भारवि पश्चाताप के रूप में वह अपना मस्तक कटवाने की भिक्षा माँगता है। पिता कहता है – न तो मैं प्रतिशोध लेता हूँ और न भिक्षा देता हूँ। पिता ने उसे समझाया कि ऐसा दण्ड नहीं दिया जा सकता क्योंकि पितृ-हत्या के लिए पुत्र-हत्या का दंड नहीं दिया जा सकता।
अन्त में दण्ड तो देना ही था। – श्रीधर भारवि को छः मास तक श्वसुरालय में जाकर सेवा करने और जूठे भोजन पर अपना पालन पोषण करने का दण्ड सुनाते हैं।
भारवि पितृवाक्य का पालन करता है; परिणामस्वरूप उसका अहंकार मिट जाता है। अन्ततः वह ‘किरातार्जुनीयम’ महाकाव्य की रचना कर ‘महाकवि भारवि’ बनता है।