कठिन शब्दार्थ- तरुवर = वृक्ष। सरबर = सरोवर, तालाब। पान = पानी। पर-काज = दूसरों के काम के लिए, परोपकार के लिए। संपति = धन। सँचहि = एकत्र करते हैं। सुजान = सज्जन, श्रेष्ठ पुरुष। थोथे = जल रहित। बादर = बादल। क्वाँर = वर्षा ऋतु का अन्तिम मास। घहरात = घुमड़ते हैं। निर्धन = धनहीन, गरीब। पाछिली = पिछली, सम्पन्नता के समय की।
सन्दर्भ तथा प्रसंग-ये दोहे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कवि रहीम के दोहों से लिए गए हैं। इन दोहों में कवि ने परोपकारी महापुरुषों की प्रशंसा की है तथा धनी से निर्धन हो जाने वाले लोगों के पुरानी बातें बखानने के स्वभाव पर व्यंग्य किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि प्रकृति हमें परोपकार का आदर्श स्वरूप समझाती आ रही है। उसके वृक्ष अपने फलों को स्वयं नहीं खाते वे दूसरों के ही काम आते हैं। इसी प्रकार तालाब अपना जल स्वयं नहीं पीते। उनसे मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और खेतों की प्यास बुझा करती है। यही बात सज्जनों पर भी लागू होती है। वे भी केवल परोपकार के लिए संपत्ति का संचय किया करते हैं। उनके धन का लाभ दूसरे ही उठाया करते हैं।
रहीम कहते हैं-वर्षा ऋतु के अन्तिम मास क्वार (आश्विन) में घुमड़ने वाले जलरहित बादल बरसते नहीं। केवल घुमड़कर और गरजकर रह जाते हैं। इसी प्रकार जो धनी व्यक्ति निर्धन हो जाता है, वह अपने धन-सम्पन्नता के दिनों की बातें बढ़-चढ़कर किया करती है। वह वास्तविकता को भुलाकर व्यर्थ के अहंकार में फंसा रहता है।
विशेष-
(i) कवि ने परोपकारियों के स्वभाव और आचरण को सराहा है। जिसकी सम्पत्ति अभावग्रस्तों के काम आए, वही सच्चा परोपकारी है और प्रशंसा का पात्र है।
(ii) क्वार के बादलों की दृष्टान्त देते हुए कवि रहीम ने धन के अहंकार को दिल से लगाए रखने वाले, निर्धन हो गए लोगों पर बड़ा कटीला व्यंग्य किया है।
(iii) भाषा पर कवि रहीम का सहज अधिकार प्रकट हो रहा है। सरल शब्दों में गहरी बात कहने का कौशल है।
(iv) कवि की व्यंग्यपटुता प्रशंसनीय है।
(v) ‘संपति सँचहि सुजान’ अनुप्रास अलंकार तथा दोनों में दृष्टान्त अलंकार है।