बाजार लोगों की सुख-शांति छीन लेता है। बाजार उपभोक्तावाद से प्रभावित है। वह इस तरह के तरीके अपनाता है कि ग्राहक बाजार में आकर अधिक से अधिक सामान खरीदें। वह सिखाता है कि अपनी जरूरतों को बढ़ाने तथा उनको बाजार में जाकर पूरा करने से ही सभ्यता का विकास होता है। बाजार में चमक-दमक होती है। बाजार में आकर्षण होता है। उसका जादू प्रबल होता है। उसमें पड़कर मनुष्य फिजूलखर्ची करने को मजबूर हो जाता है। धीरे-धीरे वह कर्ज में डूब जाता है तथा उसको निर्धनता घेर लेती है। महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था-सुखी कौन है। युधिष्ठिर का उत्तर था—जो ऋणी नहीं है, वह सुखी है। इस तरह वर्तमान बाजार व्यवस्था लोगों की सुख-शांति छीन रही है।
भारत में ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धान्त मान्य है। बाजार इसके विपरीत प्रदर्शनपूर्ण जीवन-शैली को प्रोत्साहित करता है। वह ज्यादा से ज्यादा चीजें खरीदने तथा उनके उपयोग पर जोर देता है। इससे जीवन में सादगी नहीं रह जाती तथा सादा जीवन बिताने वाला मनुष्य तिरस्कार का पात्र बनता है। बाजार मनुष्य को वैभवपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है।